Saturday, 23 July 2016

मान सम्मान के ऊपर देशहित

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भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर का विवाद अभी थमा नहीं पर एक नया विवाद सांसद भगवंत मान के रूप में प्रगट हो गया. सांसद को मिले विशेषाधिकार के तहत संसद के अन्दर फ़ोन ले जाने का अधिकार मिला हुआ है. पर इससे यह तात्पर्य कदापि नहीं है संसद की गतिविधि की जानकारी (किसी भी मंसा के तहत) लोगों को उपलब्ध कराने के लिए आप फेसबुक पर प्रसारित करते फिरे. आपकी यह लापरवाही नियमों के उलंघन के साथ संसद की आंतरिक सुरक्षा से भी जुड़ी हुई है. पूर्व में सांसद को आतंकी गतिविधि का निशाना भी बनाया जा चूका है. आतंकी लगातार देश को अस्थिर करने में लगे हुए हैं. कभी यहाँ पाकिस्तानी झंडे फहराए जा रहे है तो कल कहीं दूसरी जगह. तनिक असावधानी भी संकट खड़े कर सकती है. फिर ऐसा कृत्य कर जब आप की आलोचना हो तो आप अपनी गलती स्वीकारने, शर्मिंदा होने या मांफी माँगने के बजाय हेकड़ी दिखाते हुए इस अनुचित कृत्य की पुनरावृत्ति करने की बात कहें. जब बात हाथ से निकल जाए तो माफ़ी मांग मामले को रफा-दफा करने की प्रवृति में आ जाए. यह और भी अनुचित है. अफ़सोस का विषय यह भी है कि ‘आम आदमी पार्टी’ आपकी माफ़ी के बाद भी आपके कृत्य को सही साबित करने में जुटी रही. अब जब लोकसभा अध्यक्ष तक बात पहुंची है और उन्होंने माना है की मामला गंभीर है और सिर्फ मांफीनामे से काम नहीं चलने वाला तो बहुत संभव है की आगे चलकर विशेषाधिकार प्रक्रिया में फेरबदल भी दिखाई पड़े.

आखिर सांसद के दोनों सदनों की कार्यवाही/ गतिविधि और महत्वपूर्ण आवश्यक मुद्दे को जनता तक नीतिगत पहुंचाने के लिए टीवी चैनल हैं, जिनके माध्यम से प्रसारण का कार्य किया जाता है. वीडियो बनाना और प्रसारण करना मीडिया का काम है तो क्यों न उन्हें ही करने दिया. रही संसद की कार्यवाही संचालन हेतु जागरूकता की बात तो उस हेतु भी काफी प्रिंट और वीडियो सामग्री उपलब्ध है. फिर माननीय अपनी उर्जा ऐसे विषयों में क्यों खर्चे? वह क्यों न अपनी पूरी शक्ति अपने चुनावी क्षेत्र की समस्याओं और उनके निस्तारण में लगाए.

पर कुछ प्रतिनिधियों को लगता है की वो जो चाहे कर सकते हैं. उनकी की हुई हर बात जायज है. गलती होने पर भी अपनी बात को ही सिद्ध करने पर लगे रहते हैं. यही हो रहा है. सदन स्थगित करने पड़ते हैं और महत्पूर्ण मुद्दों को जिनको तरजीह मिलनी चाहिए की जगह अनर्गल प्रलाप के मुद्दे छाए रहते हैं. आजकल यह प्रवृत्ति भी देखने को मिल रही है की जो मुद्दा मीडिया में छाया हो वही संसद में बहस का विषय भी बन जाता है. फिर चाहे वह गुजरात दलित उत्पीड़न का विषय हो या दयाशंकर की मायावती हेतु अभद्र भाषा या भगवंत मान का मसला. क्या तयशुदा महत्पूर्ण एजेंडे पर पर्याप्त ध्यान देने के बजाय हम खबरिया चैनलों के लिए मुद्दा बने विषयों में ही भटके रहेंगे? राजनीतिक दलों को यह कब अहसास होगा कि उनके अड़ियल रुख-रवैये के कारण संसद में अनेक राष्ट्रीय महत्व के मसले अटके पड़े हैं. जिससे वह हासिल होना है जो देश चाहता है. जिसके लिए जनता ने आप को बहुमत देकर भेजा है.

Friday, 22 July 2016

राजनीती से भाषायीय मर्यादा तार-तार

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वोट की राजनीती में बहकर राजनेताओं की बोली गंदी हो गई. समय-समय पर ऐसे कुतर्क राजनीति की मंशा वाले अपने जज्बातों का इजहार करने में पीछे नहीं रह रहे हैं. दयाशंकर सिंह का वक्तव्य भी उसी मंशा और कुतर्की राजनीती की एक कड़ी है. अब तो राजनीती में ईंट का जबाब पत्थर से देने के दिन चल रहे हैं. पर दयाशंकर के वक्तव्य पर बात करने से पहले यह समझना जरुरी है की वह उस हिन्दी पट्टी से आते हैं जहाँ गालियों का प्रयोग हर साधारण सी बात के साथ किया जाता है. इस मानसिकता के तार हमारी सामाजिक संरचना में नमक की तरह घुल गया है. इसी के तहत आम बोलचाल में लोग अक्सर वही बोलते मिल जाएंगे जो बाल ठाकरे, राज ठाकरे, मुलायम सिंह यादव, श्रीप्रकाश जायसवाल, शीला दीक्षित, दिग्विजय सिंह, तापस पाल, बाबूलाल गौर, इमाम बुखारी, आज़म खान, केजरीवाल बोलते आये हैं. शायद इसी प्रभाव के तहत खुद मायावती भी गांधी को शैतान की औलाद बता चुकी हैं. जूते मारना कही से भद्र विचार नहीं है. खुद को देवी कहना भी अपने मुहँ मियां मिट्ठू बनना नहीं तो क्या है?

स्मरण रहे कि भारतीय राजनीति में गाली गलौज हेतु बसपा का इतिहास बड़ा पुराना है. हज़रतगंज में ही बसपा संस्थापक कांशीराम ने अपनी जांघ ठोक-ठोक कर अश्लील ढंग से यह कहा था कि- ‘नरेंद्र मोहन की बेटी लाओ, इस से कम पर बात नहीं होगी’ आज उसी हज़रतगंज में फिर से कई कांशीराम आ कर दयाशंकर सिंह की ‘बेटी और बहन’ दोनों मांग रहे हैं. चंडीगढ़ इकाई की प्रमुख जन्नत दयाशंकर सिंह की जीभ काटकर लाने वाले को 50 लाख रुपये देने का एलान कर रही हैं तो मध्य प्रदेश की बसपा विधायक ऊषा चौधरी दयाशंकर के डीएनए में गड़बड़ी की बात जाहिर करते हुए उन्हें अवैध औलाद घोषित कर रही हैं और उनके पूरे परिवार पर भी लांक्षन लगा रही है. सदन में बसपा सुप्रीमो और महिला नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली नेत्री के रूप में मायावती का यह कहना "दयाशंकर ने मुझे गाली नहीं दी, अपनी माँ-बहन-बेटी को गाली दी है. यह क्या अमर्यादित वचन नहीं है? इस प्रकरण में दयाशंकर के बहन-बेटी का क्या दोष है जो उन्हें लपेटा जा रहा है? क्या बदला है? लगता है आज भी बसपा ‘तिलक , तराजू और तलवार,  इन को मारो जूते चार’ के नारे से उबर नहीं पाई है. 

जो भी हो दयाशंकर सिंह ने बसपा की उखड़ती साँस को ऑक्सिजन प्रदान कर दी है. बसपा की मुट्ठी से दलित वोट बालू के मानिंद फिसलकर भाजपा में शिफ्ट हो रहे थे. बसपा की सोलहवीं लोकसभा में हुई दुर्गति किसी से छुपी नहीं है. वह बिना खाता खोले ही मैदान से बाहर हो गई थी. और हार के पश्चात् सदमे में चली गई थी तभी दलित मशीहा देवी मायावती ने साढ़े चार साल में एक बार भी सड़क पर निकल कर विरोध प्रदर्शन नहीं किया. मुजफ्फरनगर दंगे के पश्चात वहां अपनी शक्ल तक नहीं दिखाई, आज़मगढ़ में दलितों के साथ अत्याचार हुआ घर फूंके गए मायावती जी सहानुभूति देने भी नहीं गई. बसपा के गढ़ को ढहता जान बसपा नेता भी एक के बाद एक पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं. पार्टी में एक निष्क्रियता सी फ़ैल गई थी. इस लिये पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के वार्मअप के लिए इस मामले को ज़रूरत से ज्यादा तूल देना मायावती की मजबूरी है. अतः बैठे-बिठाए मिले मुद्दे को वह पूरी तरह भुनाना चाहती हैं. अब उन्होंने भाजपा को दलित विरोधी करार देकर दलितों के बीच पैठ बनाने में जुटी भाजपा को कठघरे में खड़ा कर दिया है. व्यवहारिक धरातल पर बात करें तो मायावती जी को अपने वोटों का ध्रुवीकरण चाहिये. फ्लोटिंग वोटर्स को मौसम और हवा का रूख देखकर अपनी तरफ खींचने का यह उनका भरसक प्रयास है.

यह तथ्य भी सर्वज्ञात है कि मायावती पैसे ले कर पार्टी टिकट बांटने का काम करती हैं. यह बात सिर्फ दयाशंकर कह रहे हों ऐसी बात नहीं है इसके पूर्व भी यह बात अनेकों बार, अनेकों ढंग से कही जा चुकी है. ज्यादा दूर न जाते हुए देखें तो स्वामी प्रसाद मौर्य और आर के चौधरी भी बसपा छोड़ते समय यही बात कह गए हैं. तब हंगामा नहीं हुआ क्योंकि जिस अशोभनीय शब्दों के साथ दयाशंकर सिंह ने अपनी बात रखी वह निंदनीय है. अमर्यादित है. 

मेरी मंशा किसी भी रूप में दयाशंकर सिंह के वक्तव्य का समर्थन करना नहीं है अपितु उन्होंने माफ़ी मांग ली और पार्टी से निष्काषित हो चुके हैं, प्राथमिकी दर्ज कर उनकी गिरप्तारी हेतु दबिश भी जारी है. देर-सबेर गिरप्तारी भी हो जाएगी. इसके उपरान्त भी प्रदर्शन कर अपशब्द कहे गए, जिह्वा काटने पर ईनाम का एलान किया गया. यह भी उतना ही निंदनीय है. उचित यह होता की आप व्यवस्था के तहत न्याय का इंतज़ार करते या गाली का जवाब गाली से या नंगई से देने के बजाय शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते. इससे समाज में भी पॉज़िटिव एनर्जी जाती.  

दयाशंकर सिंह बयान देने के बाद माफ़ी मांग चुके हैं लेकिन लखनऊ में प्रदर्शन के दौरान जिस तरह की नारेबाजी हुई क्या उसके लिए बसपा भी माफ़ी मांगेगी? क्या दयाशंकर की बहन व बेटी महिला नही हैं? क्या मायावती को दयाशंकर के वक्तव्य से उतनी पीड़ा झेलनी पड़ी जो अब दयाशंकर की बहन व बेटी झेल रही हैं? क्या जिन लोगों ने दयाशंकर की पुत्री के विरुद्ध अपशब्द कहे हैं उनके विरुद्ध भी मुकदमा कायम होगा और देवी मायावती जी उन कार्यकर्ताओं और नेताओं को पार्टी से निकलना चाहेंगी जिन्होंने दयाशंकर की अबोध पुत्री के सम्बन्ध में अपशब्दों का प्रयोग किया है?