प्रकृति ने संसार की रचना करते समय इसके संतुलित
रहने की व्यवस्था की थी और एक ऐसा संतुलन बनाया था जिसमे न तो किसी चीज की अधिकता
हो सके और न ही किसी चीज की कमी. अनादि काल से यह-सब चल रहा है. इसे चलाने वाली
कोई शक्ति या मशीन भी नजर नहीं आती. फिर भी निश्चित व्यवस्था से अंतरिक्ष के सारे
ग्रह, नक्षत्र, तारे एक ही गति से चल
चल रहे हैं. हमने विज्ञान में भी बहुत कुछ ढूँढा पर हमारा विज्ञान कहाँ तक पहुच
पाया है यह भी मालूम नहीं. हम यह भी नहीं कह सकते कि आज
जो नियम हैं वही सही है उसकी जगह कल कोई दूसरा नियम नहीं आ पायेगा. हम यह भी नहीं
कह सकते की जो चीजे आज हमें चमत्कृत या आश्चर्यचकित कर रही हैं कल वह गुजरे ज़माने
का हिस्सा नहीं होगीं.
हम सब धर्म के नाम पर लड़ रहे हैं. हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई बनाने की फैक्ट्रियां चलाई जा रही है.
छल-कपट, जुर्म और प्रलोभन इन फैक्टरियों के ईंधन बन रहे हैं.
मानव मानव को अपनी नजर में सही मानव बनाने के लिए लगा हुआ है. स्थिति यहाँ तक
पहुँच गयी है की इसके लिए अलकायदा, बोको हरम और आईएसआईएस चलाए जा रहे हैं. पर यह सब किस कारण और किसके लिए?
पशुवत होकर बच्चों; महिलाओं
और लोगों को मारा जा रहा है. जबरदस्ती लोगों को संघटनों से जोड़ा जा
रहा है, महिलाओं से गुलामी, बलात्कार
और बच्चों के हाथ में बंदूके थमाई जा रही हैं. ना स्वीकार करने वालों को सामूहिक
मौत दी जा रही है. लाशें बिखरी पड़ी हैं. यह सब हमारे समाज में हो रहा है. परमाणु
या जैविक हथियार के नाम पर तख्तेपलत किये जाते हैं पर अब सब मौन और खामोश हैं.
सबके पास अपनी-अपनी नजर और अपने-अपने चश्में हैं.
हर देश और संगठन अपने चश्में से झांक रहा है. सब उन अंधों की तरह जो हांथी को
टुकड़ों में जानने की कोसिस कर रहे थे. “एकही रकत एकही मुतर”
है और सब अपनी माँ की कोख़ से जन्मे हैं, मुख्य
शारीरिक बनावट के आलावा भूख,प्यास और हवा की जरुरत भी सबको
सामान है फिर एक होते हुए भी हम सब अलग कैसे हो गए. यह समझ में नहीं आता. देखने पर
हमपर विभेदीकरण का कोई ठप्पा भी दिखाई नहीं पड़ता. ईशा, मोहम्मद
और बुद्ध ने कभी यह नहीं कहा की धर्म ख़राब है बस उन्होंने धर्म की सही राह दिखाई.
लम्बे समय से रक्खे लोहे में जो जंग लग गई थी उसे हटाई. उन्होंने कभी यह भी नहीं
कहाँ की इसके अलग राह नहीं बल्कि उन्होंने यह कहा की हर राह अंत में एक जगह
पहुँचती है. सब पानी हैं और धर्म उसके स्थान विशेष के नाम (जल,वाटर,पानी,एक्वा) इसमें जो रंग
मिलाओगे यह उसी रंग में रंग जायेगा.
असली मुद्दा मानवता है. दिलो को दिलों से जोड़ने
और एक-दूसरे के लिए खुशी और दुःखी होने की भावना को महसूस करना है. पर हर देश ने
अपनी-अपनी सीमाएं बना रखीं हैं और बॉर्डर क्रॉस करने पर पाबन्दी लगा रखी है. हर
देश के अपने नियम और कायदे हैं. कहीं डिनर की मेज पर व्यवसाय होता है तो कहीं खाते
वक्त बोलने पर पाबन्दी है. लाखों बोलियाँ और लाखों उपजातियां हैं. पहले
हिन्दू-मुस्लिम में झगड़ा है और फिर मुस्लिम-मुस्लिम में सिया-सुन्नी विवाद है.
विकसित देश का पड़ोसी देश अल्प विकसित है. उसके यहाँ के कूड़ा हो चुके उत्पाद दूसरे
देश में डंप किये जा रहे हैं. सेंसेक्स रोज चढ़-गिर रहा हैं. यह हास्यास्पद नहीं तो
क्या है कि जिस प्रदूषण पर पूर्ण पाबन्दी लगनी चाहिए उसपर भी हमने मानक बना रक्खें हैं जिसे कोई देश मानता है तो कोई नहीं,कार्बन क्रेडिट बेचकर पैसे कमाए जा रहे हैं. आलम यह है की हर देश में गरीब,
नंघे, दबे-कुचले, बेसाहरा,
बेघर, भूखेपेट लोग हैं. उनके उत्थान के लिए
कोई जिहाद या आन्दोलन नहीं चल रहा है. नशा-बंदी की आवाज भी दबी जुबान से ही लगाई
जा रही है. बालिकाओं को शिक्षा लेने से रोकने के लिए खोपड़ी में गोली मारी जा रही
है. अख़बार के कार्टूनिस् और एडिटरों को मौत के घाट उतारा जा रहा है, समाज को आईना दिखाने वाले लेखकों यथा तसलीमा को देश बदर किया जा रहा है.
अमेरिका में वर्ष में दो-चार घटनाये ऐसी हो जातीं हैं जब स्कूल में पढ़ने वाला छोटा
बच्चा अपने घर से पिस्तौल ले जाकर स्कूल के दो-चार लोगों को जान से मार देता है.
कई देशों की स्थिति यह भी है कि लोगों के घर खाने को नहीं है पर एक-दूसरे को जान
से मारने के औजार हैं.
देश लगातार अपने रक्षा बजट बढ़ाते जा रहे हैं और
उसके साथ खतरनाक हथियारों का जखीरा भी बढ़ता जा रहा है. हर बड़े और विकसित राष्ट्र
के पास परमाणु बम हैं. जो युद्ध की स्थिति में छोटे राष्ट्रों को भांप की तरह सोख
जायेंगे और अगल-बगल के राष्ट्र भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगें. लगभग
हर पड़ोसी राष्ट्र की आपस में एक-दूसरे से बनती नहीं. ऐसे में मुझे आइन्स्टीन
द्वारा युद्ध के विषय में कही गयी बात याद आती है- “मैं तीसरे विश्व युद्ध
के बारे में नहीं जानता पर चौथे विश्व युद्ध के बारे में अवश्य बता सकता हूँ की वह
पत्थरों से लड़ा जायेगा”. क्या हम उसी तरह तो नहीं बढ़ रहे?
आतंकवादी कौन हैं? तथाकथित पथभ्रमित या
दो जून की रोटी को तरसने वाले परिवार के लोग. जिन्हें अपनी जान की कीमत से ज्यादा
अपने परिवार की खुशी दिखाई पड़ती है. उन्हें न तो धर्म की चिंता होती न और न ही
जिहाद की; खुशी होती है तो इस बात की कि उनके जीते जी न सही
पर कम से कम उनके मरने के बाद उनके परिवार को मिले धन से उन्हें कुछ दिनों के लिए
अमन-चैन से रहने का मौका तो मिलेगा. अधिकांश आत्मघाती हमलावर इसी किस्म के होते
हैं. उग्रवाद भी क्यों पनपा? यह भी किसी से छिपा नहीं है.
भारत के लोग सरकार के द्वारा बरती गयी लापरवाही और अपनी अज्ञानतावश पूर्वोत्तर
भारत के लोगों पर नश्लीय टिप्पड़ियां करते हैं.
युद्ध धर्म और जमीन के लिए है और युद्ध में बलि
भी आदमियों की ही दी जा रही है इसमें कोई अपना बाप, कोई अपना सुहाग,
कोई अपना लाल खो देता है. पहले राजा और अब सरकार या तमाम तथाकथित
संगठन यह कहते हैं कि हमने देश या धर्म बचा लिया पर किस कीमत पर. जिसके अपने गएँ
उसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती और जो जीतने की बात कर रहा है उसने कुछ खोया नहीं.
हार-जीत का असर कभी भी गरीब कुनबा पर नहीं पड़ा है वह तो राजाओं की प्रतिष्ठा और
उनकी गद्दी का ही सवाल होता है जिसमें निर्दोष सिपाही मारे जाते हैं.
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