भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का दौर शुरू हुए दो दशक से ज्यादा हो चुके हैं जिसमें यह हसीन ख्वाब दिखाए गए कि रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, गरीबी दूर होगी और सब विकास में हिस्सेदार होंगे. उदारीकरण के बाद निजीकरण का दौर आरंभ हुआ. पर साधारण जनता की हालात में कोई बदलाव आता नहीं दिखा. महंगाई और टैक्स के बोझ से उनकी कमर सदा झुकी रही. जबकि दूसरी तरफ कुछ लोग अमीर पे अमीर होते चले गए और कुछ ने अलग रास्ता अपनाया और घोटालों के जरिये अपने घर का विकास करने लगे. सच आज भी वही है जो दसकों वर्ष पहले था. आज भी आधीसे अधिक आबादी ग्रामीण है और यह अनेक मुसीबतों से घिरी हुई है. उसके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही है की उसका विकास कब होगा?
वह खेती तो करता है पर पेट भर खाने को अन्न नहीं पाता, दूध दुहता है और दूध डेरी चला जाता है और उसके बच्चे दूध की बूंद को तरस जाते हैं, घी, मक्खन, दही, मट्ठा अब खाने को नहीं मिलता सिर्फ बिकता है. हरे चारे और भूंसे का वर्ष भर इंतजाम करना भी अब किसान के लिए टेढ़ी खीर बन गई है. किसानों के पास ना तो अधिक खेत हैं और ना ही चकबंदी व्यवस्था के तहत अधिकांश के सारे खेत ही एक जगह हो पाए हैं. दूर-दूर खेत होने के चलते खेत में व्यावसायिक फसल उत्पादन संभव नहीं हो पा रहा है और जो मौसमी फसल किसान बोता है उसे नीलगाय या सरकारी सांड, भैंसे चर जाते हैं. यदि इन्होने खेत में आपस में लड़ाई कर ली तो पूरा खेत ही बर्बाद हो जाता है. इसके अतिरिक्त पानी, रासायनिक उर्वरक, मजदूरी और ट्रेक्टर के खर्चे से किसान की बची-खुची हिम्मत भी जबाब दे जाती है. पहले तो मजदूर मिलता नहीं और यदि मिल गया तो वह अपनी मजूरी खुद तय करता है. बैल गुजरे ज़माने की बात हो गए और दुधारू पशुओं की संख्या भी दरवाजे पर परिवार के हिसाब से कम हो गयी हैं. ऐसे में उनसे प्राप्त होने वाली जैविक खाद और ईंधन भी कम हो गए है. कृषि यंत्रो पर आसानी से सब्सिडी भी नहीं मिलती क्योंकि उसके बीच में भी कई मध्यस्थ बैठे हुए हैं. सब्सिडी वाले रासायनिक खाद और बीज की स्थिति तो जग-जाहिर है. सूखाग्रस्त क्षेत्र में जब सूखे के पैसे मिलते है तो वह भी गरीब किसानों का मजाक उड़ाते ही नजर आतें हैं, कई लोगों के खाते में आई रकम इतनी कम होती है की उसे निकलवाने के लिए बैंक जाने पर उससे ज्यादा खर्च आ जाता है.
नहर का भी क्या कहना? जरूरत होने पर वह भी अधिकतर सुखा रहता है, या मुख्य नहर में पानी इतना कम होता है की सहायक नहर में पानी ही नहीं चढ़ पता. और यदि चढ़ जाये तो समीप वाले खेत वाले अपने खेत में पानी लेते हैं और इस क्रम में पानी पीछे पहुच पायें उससे पहले ही नाहर दम तोड़ देता है. जरूरत न होने पर नहर में कभी इतना पानी आ जाता है की फसल ख़राब कर देता है.
बिजली के कनेक्सन गाँव-गाँव में फ़ैल गए हैं पर वह कब आती है और कब जाती है यह सिर्फ बिजली विभाग को ही पता होता है. अनियमित बिजली के चलते कटाई-मडाई,कुटाई,पिसाई,पेराई सब रुका रहता है. इसके चलते ट्यूबवेल भी बंद रहता है. किसान लोग बिजली कनेक्सन होने के बाद भी दिए और लालटेन की रोशनी में ही अपना काम चलाते हैं.
सरकार विभिन्न योजनाओं द्वारा गांवों में सड़क,मकान,शौचालय, नालियां बनवाती है और हैंडपंप, पेड़ लगवाती है. पर सड़क बनाने और नालियां बनाने में नंबर दो या इससे भी कमतर श्रेणी की इंटें लगायी जाती है और कई बार तो पुराने खडंजे या नाली को ही मरम्मत कर नई सड़क या नाली का निर्माण के नाम पर दिखला दिया जाता है. लोगों से पैसे लेकर उनके घर, शौचालय और हैंडपंप पास किये जाते हैं. सरकारी गल्ले पर अनाज वितरण से पहले अनाज ख़त्म हो जाता है और ‘मीड डे मील’ की थाली खाली ही रह जाती है और अनाज फुटकर अनाज की दुकानों में पहुच जाता है. गाँव के अस्पताल में पहले तो डॉक्टर ही नहीं आते और यदि भूले-बिसरे आ गए तो अस्पताल से मिलने वाली निशुल्क दवाइयां ही ख़त्म होती हैं. मरीजों को ऐसे देखा जाता हैं जैसे उन्हें अछूत की बीमारी हो और वह डॉक्टर साहब को लग जाएगी. साफ-सफाई का कहना ही क्या. छोला-छाप डॉक्टर की पुड़िया के जादू से आज भी गाँव रोग ठीक किये जा रहे हैं और उससे कितने ही लोग मर रहे हैं.
पुलिस द्वारा आए दिन किसानों पर जुल्म ढाए जाते हैं वह उन्हें मात्र शोषित मानती है. न तो किसानों की जल्दी रिपोर्ट लिखी जाती है और ना ही उनकी सुरक्षा की चिंता पुलिस वालों को होती है. आये दिन होने वाली घटनाएँ ग्रामीण क्षेत्र में पुलिस द्वारा बरती जाने वाली लापरवाही और उनके किसान विमुख होने की घटना को ही बयां करती हैं.
गाँव के सरकारी स्कूल की कहानी आये दिन अलग-अलग चैनलों पर दिखाया जाता है की वहाँ के शिक्षक किस स्तर के हैं और वह कितनी जिम्मेदारी से अपनी भूमिका निभा रहे हैं. कई स्कूल ऐसे है जिसमें आज भी एक टीचर ही एक साथ अलग-अलग कई कक्षाएं देखता है और उसके ही ऊपर ‘मीड डे मील’ की जिम्मेदारी भी है. अब आप खुद सोच सकते हैं ऐसे में वह कब और किस कक्षा को पढ़ायेगा एवं कब खाना बनवाएगा.
गाँवों की हालत यह है कि युवा प्रतिभा और मजदूर दोनों शहरों की ओर लगातार पलायन कर रहें हैं. पलायन का रुख दिल्ली-मुंबई की ओर सबसे ज्यादा है. बचे किसानों को अनिश्चितता ने बुरी तरह दबोच रखा है. एक तरफ बाढ़ और सूखे की स्थिति ने उन्हें असहाय तो दूसरी तरफ मजदूरों की समस्या ने उन्हें बेबस बनाया है. गरीबों का रहना अब ग़ाँव में भी दूभर हो गया है, क्योंकि महँगाई तो समान अनुपात से बढ़ी है, लेकिन गाँव में कमाई के अवसर न्यूनतम हुए हैं. किसानों को भी सब्जियां और मसाले खरीदने पड़ते है और ईंधन की कमी होने के चलते उनके यहाँ भी LPG गैस भरवानी पड़ती है. मजदूरों की कमी के चलते किसान बैल और हलवाहा की जगह ट्रैक्टर आदि से खेती करने को मजबूर हैं, जो कि नगदी की माँग करता है. और किसानों के पास कितनी नगदी होती है, यह बताना शर्मिदा करने जैसा होगा.
जब मेहनत करने वाले गरीब और कुर्सियां तोड़ने वाले अमीर हों… जहां सफाई करने वाले छोटी ज़ात और गंदगी करने वाले बड़ी ज़ात के माने जाते हों… जहां शहरों में रहने वाले अमीर शहरी लोग अपने ही देश के गांव में रहने वालों की ज़मीने छीनने के लिए अपनी फौजें भेज रहे हों, मीडिया में भी उनकी समस्याओं को जगह नहीं मिल रही हो. इसके बाद भी माना जा रहा हो की देश लगातार विकास की तरफ बढ़ रहा है, आकर्षक आकड़े दिखाए जा रहे हैं. कोई कहता है कि भारत की वृद्धि दर 2014-2015 के दौरान 5.5% से अधिक रहेगी तो कोई कहता है अब सब किसानों को सारी सुविधाएँ मिलेंगी...जल मिलेगा, खाद मिलेगी, बीज मिलेगा, कृषि यंत्र मिलेगा आदि-आदि पर यह होता हुआ नहीं दिख रहा है.
मैं पूछता चाहता हूँ की यह कैसा विकास है जिसका लोग दम भर रहे है. किसान आज भी पलायन कर रहा है, खेती छोड़ रहा है, फसल को सड़कों पर फेंक रहा है, आत्महत्या कर रहा है.....फिर यह कैसे मान लिया जाय की विकास हो रहा है. क्या शहरी और ओद्योगिक विकास ही सब कुछ है, ग्रामीण विकास कुछ भी नहीं? क्या बिना ग्रामीण विकास को छोड़ कर भारत विकास के सौपान चढ़ पाएगा? क्या बिना ग्रामीण विकास के किसी देश ने विकास के लक्ष्य हासिल किये हैं?
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