Think About India
कभी-कभी न जाने क्यों
झुन्झुलाहत सी उभरती है
व्यग्र सा होता हूँ
रास्ता नहीं सूझता
मन करता है सारी बेड़ियां तोड़ डालूँ
और लूँ निर्वासन
पर क्या यह सहज है
झटके से बेड़ियां टूटटी हैं ?
रात भर सोचता हूँ
दाल-रोटी का झंझट
चेहरे पर लगा चेहरा
यहीं छोड़ दूँ आज
चक्र ऐसा है... घूम जाता हूँ
सुबह फिर बैग थाम निकल पड़ता हूँ
रोज के रास्ते
लिजलिजाहट भरी जिंदगी जीने
नकली हंसी पे हँसने
आँख से आंसू छलकाए बिना रोने
शायद यही जिंदगी है...
जीवन है....
विकल्प है....
या कुछ ना कर पाने की
मेरी खुद की चुभन है ?
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