Thursday 11 December 2014

आत्महत्या अब अपराध नहीं रहेगा


गुलामी मिटने के बाद भी भारत में दो चीजें नहीं बदलीं नौकरशाही और न्यायव्यवस्था. अंग्रेजों ने अपनी दमनकारी नीतियों को लागू करने के लिए जो नौकरशाही, न्याय व्यवस्था और कड़े कानून बनाए थे, देश आजाद हो कर भी उन्हें ढो रहा है. इसी का परिणामआईपीसी की धारा-309 है जो आत्महत्या को जुर्म की श्रेणी में रखती है. सरकार द्वारा  धारा-309 को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का फैसला किया गया है और उस पर 18 राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों ने अपनी सहमति जताई है. संशोधन विधेयक जल्द पेश होने के आसार हैं. 

अगर यह पास हो गया तो आत्महत्या कानूनी अपराध ना होकर मानसिक बीमारी मानी जाएगी और और आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति की देखभाल की व्यवस्था के साथ उसका इलाज किया जायेगा. इसके साथ यह भी देखना होगा की आतंकवादी गतविधियो जैसे-मानव बम आदि के लिए क्या नियम बनाये जाते हैं और इसे कैसे सामान्य आत्महत्या से अलग किया जाता है. 

हर आदमी जिंदगी को उसके अंत तक अपनी प्रतिष्ठा के साथ जीना चाहता है. मरने के नाम से ही लोग कांप जाते हैं फिर आत्महत्या की कोशिश करना कितना कठिन है और इसे करने वाला कितनी मजबूरी, बेबशी और असहाय होकर यह कदम उठाता है, यह खुद समझा जा सकता है. वह मरने से पहले कितनी मौत मरता है इसकी कल्पना भी हम सामान्य लोग नहीं कर सकते. 

यदि आत्महत्या का प्रयास करने वाला व्यक्ति अपने प्रयास में सफल हो जाता है तब तो वह इस संसार से ही मुक्त हो जाता है, लेकिन यदि वह जिन्दा रहा या बचा लिया गया तो उसे कितनी शर्मिंदगी, शारीरिक यातना (अस्पतालीय उपचार के दौरान), लोगों की निगाहों का सामना करना और सवालों का जबाब देना पड़ता है यह उसके लिए कितना असहनीय होता है उसके आलावा कोई और नहीं समझ सकता.

मुझे याद है मेरे घर के बगल की एक लड़की की कहानी जिसके शरीर में कई जगह सफ़ेद दाग से थे और उसने काफी इलाज भी करवाया था परन्तु वह ख़त्म नहीं हुए थे. उसकी बार-बार शादी टूट रही थी. कई लड़के वाले उसे देखने आते और उसके शरीर के दाग के विषय में जानकार चले जाते. वह इस मुह-दिखाई की रस्म से तथा मोहल्ले वालों की तमाम कानाफूसी बातों से तंग आ गयी थी और एक दिन उसने फांसी के फंदे को गले से लगा कर झूल गयी लेकिन इसे लड़की का दुर्भाग्य कहें या घर वालों का सौभाग्य की उन्होंने उसे ऐसा करते हुए समय पर देख लिया और उसे अस्पताल ले कर गए. मैं भी अपने परिवार के साथ उसे देखने गया तो उसके बुरी हालत देखकर मैं अंदर तक कांप गया. उसका गला और चेहरा  काफी सूज गया था, हाथ-पांव बंधे हुए थे,वह गर्दन तक नहीं हिला पा रही थी. 

अब आप सोचिये की जो लोग अपने आप को आग लगा लेते हैं, छत से कूद कर या वाहन के नीचे आकर हाथ या पांव तुड़वा लेते हैं उनकी स्थिति क्या होती होगी. जहाँ आग से जलने वालों का चेहरा ख़राब हो जाता है वहीँ अपंगता से उनका जीवन-यापन कितना मुश्किल हो जाता यह हम-आप सोच भी नहीं सकते. 

आज क्या बच्चे,क्या जवान और क्या बूढ़े सभी परेशान हैं. सभी के साथ कोई ना कोई समस्या अवश्य है. बच्चों के 99% नहीं आये तो डीयू में दाखिला नहीं मिलेगा, प्राइवेट कंपनियों में थकाऊ काम के बाद भी डाट, सहकर्मी का प्रमोशन, जॉब से निकाला जाना, किसानों पर लगातार बढ़ता कर्ज और फसल नष्ट होना, भूखमरी की स्थिति, प्रेमी-प्रेमिका की हताशा, टीचर का रोज-रोज डाटना या मारना, पुरुष टीचर द्वारा बच्चियों का शारीरिक शोषण, पारिवारिक समस्या या कलह, एकाकीपन जैसे कई मुद्दे हैं जिसके कारण व्यक्ति हताश और निराश हो कर व्यक्ति आत्महत्या करता है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2004 के बाद दस से पंद्रह साल के बच्चों में आत्महत्या के मामलों में 75 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में हर 10 हजार लोगों में 98 लोग आत्महत्या करते हैं. हर 90 मिनट में एक युवा आत्महत्या की कोशिश करता है. 37.8 फीसदी युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति पाई गई है. आंकड़ों के मुताबिक भारत में सबसे अधिक आत्महत्या स्वरोजगार में लगे लोगों में देखी गई है. जबकि आत्महत्या के मामले में दूसरे नंबर पर गृहणियां होती हैं. आदमियों में आत्महत्या की दर 41 फीसदी है जबकि गृहणियां में 21 फीसदी है. कर्मचारियों में यह दर 11.5 फीसदी, बेरोजगारों में7.5 फीसदी और छात्रों में पांच फीसदी है. आत्महत्या करने वाले लोगों में ज्यादातर 15 से 35 वर्ष की आयु के लोग हैं. वहीं महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में आत्महत्या करने के मामले अपेक्षाकृत अधिक हैं. 2013 में 1लाख 35 हजार से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की थी. आत्महत्या से बचने वालों के आंकड़े प्राप्त ही नहीं है.  

हमें और सरकार को मिलकर निराश और हताश लोगों के बीच जाना चाहिए और उनकी हताशा और निराशा दूर करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए ना की उनकों कानून के मकड़जाल में उलझाकर उनपर जुर्माना लगाना चाहिए या उन्हें जेल में बंद करना चाहिए. आईपीसी की धारा-309 जो आत्महत्या को जुर्म ठहराती है और आत्महत्या की कोशिश करने वालों को एक साल तक के साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों सजा सुनाती है को ख़त्म करना चाहिए.

अदालतों में समय-समय पर इसे लेकर सवाल उठता रहा है और इसे ख़त्म किये जाने की धारणा बनती रही है. 1978 में धारा-309 संशोधन विधेयक राज्य सभा में पारित किया गया था परन्तु यह लोकसभा में पहुचता इससे पहले संसद भंग हो गयी. अब सरकार द्वारा फिर से प्रयास किया जा रहा है तो आशा बंधी है की शीघ्र ही इसे मंजूरी मिल पायेगी और आत्महत्या जुर्म नहीं रह जायेगा.

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