Saturday 21 March 2015

बुढ़िया! ....क्या बोझ?


बैंक में पेंशन लेने वालों की लाइन लगी थी और टोकन बाँटे जा रहे थे. कैशियर बार-बार एक नाम पुकार रहा था पर कोई जबाब नहीं आ रहा था. तभी वह एक आदमी को इशारा कर कहता है-भाई साहब! जरा उस बुढ़िया को बुला दीजिये. बैंक में रक्खे सोफे पर वह वृद्ध महिला अपने नाम के पुकारे जाने से बेखबर बैठी थीं. वह आदमी उन्हें कैशियर द्वारा उनके नाम पुकारे जाने की जानकारी देता है और जैसे ही बृद्ध महिला को पता चला की उनकी बारी आ गयी है उठ कर काउंटर की तरफ लपक पड़ी. कैशियर चार बाते सुनाता हुआ उन्हें उनकी पेंशन देता है और कहता है अगली बार किसी को ले कर आना नहीं तो पेंशन नहीं मिलेगी.

इस तरह बुढ़िया शब्द का संबोधन मुझे अटपटा सा लगा और सहसा मुझे अपने बचपन की घर के बगल वाले दोस्त की याद आ गयी. मैं उसके साथ खेलने के लिए उसके घर जाया करता था. तभी एक दिन उसकी दादी गाँव से इलाज के लिए आ गयी थीं और उनके साथ ही रहने लगीं थीं. वह मेरे लिए जब तक रहीं एक रहस्यमयी चीज की तरह थीं. शायद उन्हें कैंसर हुआ था और उसी का इलाज कराने वह अपने शहरी बेटे के पास आई थीं.

उनका बिस्तर फ़्लैट के एक कोने में जहाँ टाइगर बंधता था वहां लगाया गया था और तखत के निचे उनका लोहे का संदूक रखा था. संदूक के ऊपर कपड़े की एक पोटली रखी गयी थी जो बाद तक हमारे लिए कौतुहल का विषय बन गयी थी की पोटली में क्या है? पर हम उस पोटली के पास नहीं जा सकते थे. हमें उनके पास जाने की मनाही की गयी थी. हम दूर से ही उन्हें देख सकते थे. वह पता नहीं क्यों बार-बार अपनी गठरी खोलती और उसमें कुछ टटोलती रहती थीं.. मानों कुछ खोज रही हों और फिर बंद कर देती थीं..........

वह सदा रामनामी जपती रहती थीं और जब रामनामी नहीं जपती थी तो पता नहीं क्या अकेले में खुद से बड़बड़ाती रहती थीं. मैंने किसी को उनसे बात करते नहीं देखा सिवाय उस महरी के जो झाड़ू लगाने आती थी... वह बड़बड़ाते- बड़बड़ाते रोने भी लगती थीं... जबकि उन्हें कोई मारता नहीं था....उन्हें जब महाराज खाना देता है तो वह काफ़ी देर तक शून्यभाव से छत को देखती रहती है जैसे शून्य से कुछ खोजने की कोशिस कर रही हों...पर वह अभी बहुत दूर हो..

जब हम खेलते हुए उस कमरे में पहुँच जाते हैं तो वह आँखों में ममता भर कर हमें देखती रहती हैं और जब कभी हम खेलते-खेलते उनके पास पहुँच जाते तो वह स्नेह से भरे अपने कांपते हाथ हमारे सर पर फेर देती थीं. हम तब नासमझ उस निस्वार्थ प्यार के मूल्य को समझे बिना अपने खेल में ही मग्न रहते थे और शायद तब दादी अतीत की गहराई में जाकर अपने बच्चों की मोहक स्मृतियों में फँस जाती थीं...

बीमारी के चलते शायद वह रोज नहीं नहा पाती थी जिससे उनके शरीर और कपड़े से दुर्गन्ध आती थी. उसके बर्तन अलग थे और दोस्त ने बताया था की दादी हमारा साथ खाना नहीं खातीं उनके लिए महाराज अलग से खाना बनाता है...  एक दिन जब हम खेल रहे थे तभी उन्होंने हमें बड़े प्यार से बुलाया और हम दोनों को आधे-आधे पेड़े खाने को दिए और कहा- खाओ! .. तभी आंटी ने आकर हमारे हाथ झटक दिए जिससे पेड़े फ़र्श पर गिर गए और कहा बच्चों को भी कैंसर लगवाओगी.. शरीर की तरह तुम्हारे दिमाग में भी कैंसर लग गया है..
  
घर जाकर जब मैंने अपने घर यह बात बताई तो मेरा दोस्त के घर जाना क्यों बंद करा दिया गया यह मैं आज तक समझ नहीं सका? मेरे माता-पिता को दोस्त की माँ की अभद्रता बुरी लगी थी या रोगी से मुझे दूर रखने का यह एक उपायमात्र था- यह मेरी लिए आज भी पहेली बना हुआ है.

इस घटना के बाद मेरा दोस्त मेरे घर खेलने आता था और उसका भी दादी के कमरे में जाना बंद कर दिया गया था. उसने मुझे बताया की दादी को आज माँ ने अपनी पुरानी साड़ी दी है जो पहले कामवाली बाई को दी जाती थी और दादी अब चीखती-चिल्लाती भी हैं जिससे मम्मी को सीरियल देखने में परेशानी होती है.. माँ कहतीं हैं सब नाटक है.....

एक दिन मैंने आंटी को माँ से दादी के विषय में बात करते हुआ सुना-खुद तो ऑफिस चले जाते हैं और मेरे सर लालची और गंवार बुढ़िया को छोड़ जाते हैं..न सीरियल देखने देती है और ना ही आराम करने देती है...हर चीज को आँखें गड़ाकर देखती है और कान की बड़ी तेज है ..वैसे तो दिन भर चंगी रहेगी पर बेटे के आते ही बीमार हो जाएगी और दुखड़ा रोना शुरू कर देती है..  आफ़त बनी हुई है... न मरती है, न मांचा छोड़ती हैं... 

फिर एक दिन वह भी आया की जब मैं स्कूल से आया तो मुझे पता चला की दादी माँ मर गयी...सहसा मुझे स्मरण हो गया की यह सब नाटकहै और ऐसे लगा नेपथ्य का पर्दा गिर गया और नाटक का अंत हो गया.... 
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कभी-कभी तो मुझे विस्वास ही नहीं होता है की वह दादी बुढ़िया मेरे दोस्त के पिता की माँ थी...और यदि माँ थीं तो क्या माँ ऐसी ही होती हैं?...कभी वह बुढ़िया भी सभी माँ की तरह अपने बेटे के खाने-पीने और आराम करने का ख्याल रखती रही होगी और तनिक भी बेटे को  चोट लगने पर उसके दिल के दो टुक हो जाते रहे होंगे और वह उन्हें अपने सिने से चिपका कर  पूंछती रही होगी की- मेरे लाल को कहाँ चोट लग गयी?...और बेटा भी माँ के इस स्नेहिल प्यार से अपना दर्द भूलकर हँस देता रहा होगा.

फिर ऐसा क्या हो जाता है की एक माँ तो अपने सभी बच्चों का ख्याल रख सकती है पर सभी बच्चे बड़े होकर अपनी एक अदद माँ का ख्याल नहीं रख पाते? क्यों स्त्रियाँ अपने दस बच्चे पाल लेती हैं पर एक सास पूरे परिवार पर भारी पड़ जाती है? क्यों बूढी हो चूकी दादी-नानी तिल-तिल कर दमघोंटू जिंदगी जीने के बाद भी अपने बच्चों से प्यार करना नहीं छोड़ती और बच्चे की गलती होने पर भी वह बहू की गलती निकाल देती हैं?   
  
क्या बुढ़िया रिश्तों की दुनिया से अवकाश प्राप्त प्यार के पेंशन के लिए भटकती भिखमंगे की अवस्थाबोध लिए दया की दरकार करती हुई ही होती हैं जो मेरे दोस्त की दादी हो गयी थीं. बहू की नज़रों में नौटंकी और बेटे की नज़रों में सिर्फ बजट बिगाड़ने वाली बन जातीं हैं...?

क्या मेरी माँ की भी ऐसी स्थिति होगी और हम बड़े होकर अपनी माँ को भूल जाएगे? यह यक्ष प्रश्न है जो सभी बेटों और बहुओं के सामने है.....
-अतीत-अंतर्मन के झरोखे से
अजय कुमार त्रिपाठी


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