Saturday 21 March 2015

“बोए सपने काटे कर्ज : आज का किसान ग्लोबलाइजेशन तले"

सबके पेट को भरने वाला भारत का किसान आज खुद भूखों मर रहा है. उसके खेत में क्या खेती होगी वह भी ग्लोबलाइजेशन तय कर रहा है. सरकार बोली हरित क्रांति लाओ और वह कूद पड़ा यूरिया डाल कर,खेत को बीमार बनाकर पैदावार बढ़ाने में और अब सरकार कह रही है उन्नत तकनीकी अपनाओं तो वह अपने मित्र बैल के खूंटे खाली करने पर लगा हुआ है. इसकी जमीनों पर राजमार्ग और टाउनशिप प्लान बनाने का चलन चल निकला है जिसकी भरपाई ‘मुआवजा’ कर रहा है. किसानों की माँ-जमींन से उसे जब चाहे बेदखल कर दिया जाता है और वह चुप रहता है और अगर विरोध कर लाश बन जाय तो उसका भी मुआवजा रेट पहले से तय है. सरकार ने भी इन्हीं  के भरोसे पर बिना इससे पूछे सब को फ़ूड सिक्यूरिटी का चुनावी वादा दे दिया है. पर उसका उत्पादन सरकार को नहीं किसान को ही करना है और उसकी हालत ऐसी है की काटो तो खून नहीं.....

21वीं सदी है जमाना बदल गया है अब सबसे ऊपर हुआ करने वाला और जीडीपी में सबसे अधिक योगदान देने वाला किसान अब बहुत नीचे आ गया है. आईटी क्रान्ति के नारे बुलंद है. एसी के नीचे बैठकर कंप्यूटर चलाने वाला समृद्ध है, धूप के नीचे हल चलाने वाला काला है, वृद्ध है, रंक है. किसानों के लिए नीतियाँ भी वहीँ बनाते हैं जिन्होंने खेत पर काम नहीं किया होता,फसल होने में व्यावहारिक तौर वह कितनी परेशानियां होती हैं कभी नहीं समझा होता है. ऐसे लोग पांच सितारा होटलों में बैठकर किसानों के लिए नीतियां बनाते हैं. तो स्वाभाविक है की नीतियों की धरातलीय पृष्ठभूमि कितनी व्यावहारिक होगी?


पहले मौसम मेहरबान होता था. फसल लहलहाती थी. पेड़ों पर झूले पड़ते थे और आम के बौर से पूरा गाँव महक उठता था. पर अब आम के बाग खेत बन गए और खेत में गगनचुम्भी इमारतें लहराने लगीं हैं. दूध आज भी गाँव में होता है पर किसान का बच्चा दूध की बूंद को तरस जाता है और सारा दूध डेरी पर चला जाता है. बाजारवाद ने वहां भी रुख कर लिया है और लोग दूध-मट्ठा छोड़कर बर्गर, चाउमीन, सैंडविच के जाल में फंसते जा रहे हैं. कुरता-धोती के बदले जीन्स और टी-सर्ट चढ़ाया जा रहा है. किसान के मित्र 'बैल' के बदले दरवाजे पर चारपहिया खड़े करने का क्रेज बढ़ गया है. यंत्रो ने अवश्य उसकी खेती को सरल बनाया है पर यंत्र भी किसके पास हैं? गरीबों की सब्सिडी पर अमीर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं.
     

अब मौसम ने भी किनारा कर लिया है. देश में नहरों की मौजूदगी भी बिखरी हुई है. जैसे तैसे करके होने वाली फसल ....खरीदने कोई नहीं आता है. सरकार आती है तो मुठ्ठी भर रुपयों के साथ. भारतीय अनाज जरुरत से ज्यादा होने पर वैश्विक बाजार में कीमत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते और नकार दिए जाते हैं. सीमाकर ने महँगे मोबाइल टके के भाव कर दिए तो विदेशी फसलें भी टके के मोल मिलने लगीं और किसान फसलों में आग लगाने के लिए मजबूर हो जाते हैं.

किसान की जान एकदम सस्ती हो गयी है इसीलिए महाराष्ट्र में पशु नहीं मरते, जितने तो किसान जहर खा लेते हैं. जिसके पास जहर के पैसे भी नहीं होते हैं वे खेत की ही किसी सूखी खेजड़ी से झूल जाते हैं. कपास की खेती करते हैं, पर पहनने को लंगोट के अलावा कुछ भी नहीं है. अब तो किसानों को भी मरनेकी आदत सी हो गई है. जिस दिन नहीं मरे, उस दिन लगता ही नहीं कि भारत में ग्लोबलाइजेशन है.


मजदूर किसान हितों को झंडा बनाकर आगे बढ़ी पार्टियाँ, हँसिया और गेहूँ की बाली, अपनी पार्टी कार्यालयों की दीवारों पर पुतवाती हैं. फिर अंग्रेज़ी में लेख लिखतीं हैं, भाषण देती हैं किसान दूर से ही उन्हें देखता रहता हैं..किसान नेता भी स्वार्थसिद्धि हो जाने पर किसानों से दूरी बना लेते हैं. सरकार आज लाचार हैं? इतनी कि, किसान भी नहीं.
ग्लोबलाइजेशन को ऑपरेशन कर देखें, तो यहाँ का किसान ...ऐसा लगता है कि पुरा पाषाणकाल में से निकलकर कोई आदिवासी आ पहुँचा है. लगता है कि ....इन्हें गुलाम बनाकर सिर्फ़ खेती करवानी चाहिए. ताकि हम वैश्वीकरणका शुक्रिया अदा कर सकें. आईटी क्रांति को दोनों कन्धों पर उठाकर नाँच सकें.
सामने नीचे बैठा ...विदर्भ के ही किसी स्वर्गीय किसान का बेटा, संग-संग नाच रहे ग्लोबलाइजेशन की बलइयां ले सके.

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