मंथर गति से ही सही लेकिन आने वालें दसकों में हो सकता है की प्रारंभ से अंत तक की सारे कृषि कार्य का मशीनीकरण हो जाय. पर जब हम भारतीय कृषि के परंपरागत वैभव को स्मरण करते है तो
प्रशंसा और सम्मान से भर जाते है की कैसे समर्पित कृषि मजदूरों ने खेत में पीढ़ी-दर-पीढ़ी
काम किया. लेकिन अब प्रवृत्ति बदल रही है. इस बदलती प्रवृत्ति को नीचे दी गयी भारतीय कृषि 2011
की जनगणना रिपोर्ट सारणी से समझते का प्रयास करते हैं. तालिका सरल है जबकि संदेश एक प्रतिमान
परिवर्तन के बारे में है.
भारतीय कृषि 2011 जनगणना रिपोर्ट
भारतीय कृषि में विभिन्न कृषि ऊर्जा स्रोतों
का प्रतिशत शेयर
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वर्ष
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कृषि
कामगार
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कृषि
पशु
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ट्रेक्टर
|
पॉवर
टिलर
|
डीजल
इंजन
|
विद्युत्
मोटर
|
पॉवर/किलोवाट/हेक्टेअर
|
1971-72
|
10.64
|
52.86
|
8.45
|
0.11
|
17.16
|
10.79
|
0.424
|
1981-82
|
9.2
|
33.55
|
18.46
|
0.11
|
22.85
|
15.82
|
0.592
|
1991-92
|
7.22
|
20.5
|
26.14
|
0.16
|
21.14
|
24.84
|
0.907
|
2005-06
|
5.39
|
9.97
|
38.45
|
0.44
|
20.09
|
25.66
|
1.498
|
2009-10
|
5.12
|
8.55
|
41.65
|
0.52
|
19.01
|
25.13
|
1.658
|
• 1971-72
के पश्चात कृषि कार्य बल की प्रतिशत
हिस्सेदारी 10.64% से कम हो कर 5.12% तक पहुँच गयी जिसका तात्पर्य है कृषि क्षेत्र का एक
बड़ा हिस्सा लगभग 50% अन्य क्षेत्रों में या तो शहरों और या रोजगार की तलाश में पलायन कर गया. 2010 के पश्चात के आंकड़े नहीं प्राप्त हुए हैं अतः मनरेगा का प्रभाव जाने बिना
नवीनतम अनुमान गलत हो सकता है. हालांकि प्रभावी कमतरी का असर स्पष्ट रूप से तालिका में 1981 और 2005 के बीच देखा जा सकता है.
•इसी क्रम में, लेकिन अधिक चिंतनीय तीव्रता के साथ कृषि पशुओं का प्रतिशत भी 52.86% से कम होकर 8.55% तक आ गया. अधिकांश कृषि-पशु रखने वाले किसान 1ha से ;2ha श्रेणी के यानि अधिकतम सीमांत और लघु किसान हैं. यहाँ यह उल्लेख करना जरुरी है कि कम भूमि जोत होने के चलते इन्हें कृषि जानवरों से कृषि करने के लिए पालना एक अत्यंत
महंगा प्रस्ताव बनता जा रहा है. पशु चारे की
लागत भी निरंतर महँगी होती जा रही है. लेकिन कृषि-काम अभी भी मानसूनी और फसल चक्रीय बनी हुई है. जिसके कारण कृषि कम लाभकारी होती जा रही
है और फलस्वरूप कृषि जानवरों की स्थिति तालिका के अनुरूप धीरे-धीरे घट गई है. कृषि पशुओं के स्थान को अब बड़ी मशीनों के बजाय कम लागत वाली और कार्य में प्रभाशाली छोटे मशीनों से बदला जा रहा है. कृषि का मशीनीकरण किया जा रहा है.
• और
इसलिए भारतीय कृषि परिदृश्य में परिवर्तन से यह विवादास्पद मुद्दा उत्पन्न हो रहा है जिससे मजदूरों के जीवन कारक नीचे जा रहे है और मशीनीकरण की ट्रेंडिंग जोर पकड़ रही है.
• ट्रैक्टर का उपयोग कृषि में बढ़ गया है, लेकिन ये आंकडे अश्व शक्ति के रुझान
की बात नहीं करते. गौर करने लायक है की 60hp , 45hp और 35hp श्रेणी वाले ट्रेक्टर खरीदने की प्रवृत्ति में बदलाव आया है और बाजार में 25hp और 16hp एवं इससे भी कम hp के ट्रेक्टर द्वारा अधिक hp वाले ट्रेक्टर प्रतिस्थापित किए जा रहे हैं. ऐसे में पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में उच्च अश्वशक्ति
श्रेणी वाले ट्रेक्टर ज्यादा उपयोग में लाये जा रहे हैं इसका मुख्य कारण यह है की इन ट्रेक्टरों को कृषि के अलावा व्यावसायिक उपयोग के लिए भी प्रयोग में लाया जा रहा है. लेकिन कपास की खेती के लिए काली मिट्टी को अतिरिक्त खिचाव की
आवश्यकता होती है,अतः इस खेती के लिए अधिक hp वाले ट्रेक्टरों की जरुरत होती है. जहाँ सुगर मील हैं वहां भी गन्ना से भरी हुई डबल ट्रॉलियों के खींच के लिए 35hp , 45hp और 60hp जैसे ट्रैक्टर की जरुरत होती है और वहां ये ही प्रोग में लाये जा रहे हैं.
•
पावर टिलर के यदि रुझान तो देखें तो पाएंगे की पॉवर टिलर की मांग की प्रवृत्ति बढ़ी है और असाधारण रूप से यह 0.11% से 0.52% तक पहुँच गयी है. हालाँकि पॉवर टिलर का विकास मुख्य रूप से सीमांत, लघु और मध्यम किसान के खेती के लिए विकसित किया गया है.यह इनकी खेत के जरूरतों के हिसाब से ही तैयार किया गया है. इसकी मांग किसानों की संख्या के हिसाब से जिस तेजी से बढ़नी चाहिए वह वृद्धि अभी दिखाई नहीं पद रही है. लेकिन तेजी से कम होती कृषि जोत को देखते हुए जल्द ही ट्रेक्टर को इनके द्वारा विस्थापित कर दिया जाएगा.
कार्य करने के लिए कामगार कहाँ हैं?
अधिकांश खेत पर कार्य करने वाला कामगार
भूमिहींन किसान हैं जो गरीब हैं और अभी तक निराई, रोपाई, पंक्ति फसलों में कीटनाशक छिड़काव, उर्वरक डालने का महत्वपूर्ण कृषि कार्य
करते हैं और इन्हें भुगतान अनाज के रूप में किया जाता है.
भारतीय कृषि का प्रतिशत हिस्सेदारी भारतीय सकल
घरेलू उत्पाद में घट कर पंद्रह प्रतिशत तक आ गई है. जनसंख्या की कृषि उत्पाद निर्भरता के चलते
कृषि पर पड़ रहे उच्च दबाव और कृषि जोत
क्षेत्र के विभाजन के चलते प्रति पारिवारिक जोत कम हुई है इसके साथ ही चक्रीय मजूरी की उपलब्धता अधिक से अधिक दुर्लभ होती जा रही है.
कारखानों, बुनियादी परियोजनाओं और सेवाओं में रोजगार के अवसर अधिक आकर्षक होते
जा रहे हैं. और मनरेगा योजना के लागू होने से जो प्रतिवर्ष काम के 100 दिन की
गारंटी देता है ने एक खेत मजदूर के रूप में काम करने का आकर्षण लाद दिया गया है.
भारत के कार्य बल का लगभग आधा भाग अभी भी अपनी
आजीविका के लिए कृषि में लगा हुआ है, जबकि भारत अब भी भोजन पर लगभग कुल व्यय का आधा खर्च करता है.
कम आय, समाज के गरीब और कमजोर वर्गों में अधिकांश के लिए दोनों- आजीविका और
खाद्य सुरक्षा के एक स्रोत के होने के नाते, अपने प्रदर्शन प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के
मद्देनजर और मनरेगा के चल रहे कार्य में अधिक से अधिक महत्व रखती है. और खेत श्रम
की उपलब्धता में इस कमी के साथ श्रम की लागत भी बढ़ गई है. श्रम की अंतरदेशीय पहल उदाहरण
के लिए बिहार से अन्य राज्य जैसे पंजाब के लिए पलायन
सकल घरेलू उत्पाद में कृषि के योगदान की कमी को
रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी के साथ कमी
करके कभी मेल नहीं किया गया है. कुल
कर्मचारियों की संख्या का 52% अभी भी अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है जो भारत की आधी
जनसँख्या से अधिक हैं लेकिन प्रवृत्ति आने
वाले समय में बदल सकती है हालांकि,
ग्रामीण अर्थव्यवस्था के भीतर, गैर कृषि गतिविधियों से आय की हिस्सेदारी बढ़ गई है..
भारत की जनसंख्या का 65% 35 वर्ष से कम उम्र के
है जो जानकार और महत्वाकांक्षी हैं. वे अपने पूर्वजों की तरह खेत में गदहे की तरह काम करने के लिए साधन नहीं
है. वे इसलिए स्वयं संचालित मशीनीकरण विधि से खेत को जोड़ना छह रहे है और अधिक उत्पादन की चाह रखते हैं. .
प्रशिक्षित श्रम की कमी कीटनाशकों और
खर-पतवारनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के लिए अप्रशिक्षित किसान को प्रोत्साहित करती
है जो खाद्य श्रृंखला मई मील जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य के मुद्दों में
वृद्धि हुई जैसे- पंजाब के कुछ जिलों में भूजल पिने योग्य नहीं है और इनसे कैंसर
के मामलों तेजी से वृद्धि हुई है.
आगे का रास्ता
भारतीय कृषि पर अपरिहार्य दबाव बढ़ते ही जा रहे
है और सरकार को एक चार कोनों की नीति की जरूरत है जो पर्यावरण की देखभाल, खेती व्यवहार्यता, खेत कामगार और उत्पादकता की देखभाल कर
सके.
• फसलवार, क्षेत्र वार खेत लाभप्रदता समीक्षा की लिए
तत्काल जरूरत है. इस समीक्षा में प्रत्येक लागत सीमांत और मध्यम किसान के लिए
निधारित किया जाना चाहिए.
•
सीमांत और मध्यम किसानों को सूक्ष्म फसल उपकरण को विविध महत्वपूर्ण फसल गतिविधियों
स्वयं खेती, लागत
नियंत्रण और उत्पादकता में वृद्धि के लिए पेश करने की जरूरत है.
• पर्यावरण
चिंताओं को भी ध्यान मई रखकर पैटर्न फसल बदलने की आवश्यकता है. जैसे पंजाब में धान
के लिए भारी पानी की खपत की आवश्यकता है, जिसे कुछ अन्य फसल के साथ प्रतिस्थापित
किया जाना चाहिए जिसमे कम पानी और किसान लाभप्रदता भी बढ़े.
• बेहतर
खेत अर्थशास्त्र, पर्यावरण चिंताओं और खेत मजदूर हेतु रोजगार की निश्चितता के लिए खेत कौशल प्रशिक्षण
प्रदान किया जाना है.
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