Thursday 15 January 2015

प्राथमिक साफ-सफाई और ग्रामीण जीवन #Rural #Life and Primary #Sanitation


 मुझे यदा-कदा गाँव में रहने और उनसे मिलाने का मौका मिलता ही रहता है. पर मुझे ग्रामीण जीवन की कुछ बाते सदा खटकती रहती हैं जिनमें साफ-सफाई का मुद्दा सबसे अहम् है. ग्रामीण लोग अधिकतर महिलाएं जागरूकता की कमी और अशिक्षा के चलते साफ-सफाई के कई ज़रूरी तथ्यों को नजऱअंदाज कर देते हैं.

 
भोजन बनाना एवं खाना

ग्रामीण भारत में घर की महिला ही भोजन बनाती है और साफ भोजन के लिए जरूरी है की वह पहले आपने हाथ साफ करे लेकिन गाँव की कोई महिला ऐसा नही करती. अधिकांश औरते कहती हैं की यदि हाथ में कुछ लगा रहा तो पानी से हाथ धुल लेती हैं नहीं तो कपडे से पोंछकर काम में लग जाती हैं. उसी हाथ से खाना बनाने के दौरान आग कम होने पर उपला और लकड़ी भी डालती जाती हैं. किसी-किसी घर में तो चूल्हे के धुएं की उचित निकासी की व्यवस्था भी नहीं होती. महिलाएं भी सबके खाने के बाद याद रहने पर हाथ धुल लेती हैं नहीं तो साड़ी या किसी भी कपडे में हाथ पोंछ कर खाना खा लेती है. आंगन में मक्खियों का साम्राज्य रहता है आप चाहे जितना भी बचना चाहों पर बच नहीं सकते एकाध मक्खी तो खाने पर बैठ ही जाती है. 


स्नान और कपड़े धुलना

आगरा के फतेहपुर सीकरी में औलेंडा ग्राम पंचायत में कई महिलाओं से पुछने पर यह भी पता चला की नहाने में सिर्फ पांच मिनट लगते है क्योंकि गाँव के लगभग सभी घरों में बाथरूम जैसी कोई व्यवस्था नहीं है. आंगन में ही रस्सी बांधकर पुरानी साड़ी बांधी है और पत्थर के चौके डालकर कुछ ऊंचाई तक ईंटें लगा रखी है. कोई आ न जाये इसलिए एकदम बेफ्रिक होकर नहीं नहा पातीं, जल्दी-जल्दी नहाकर भागना पड़ता है. आगे बताती हुई कहती हैं कि,  निरमा-साबुन इतना महंगा है कि साबुन-सर्फ से कपड़े हप्ते में सिर्फ एक या दो बार ही धोते पाते हैं. यदि किसी के घर में गुसलखाना है तो उसमें दरवाजा नहीं है. गुसलखाने से लगती हुई बाहर जाने वाली कोई नाली की व्यवस्था भी लगभग नहीं होती. अधिकांश घरों का पानी नजदीक के गड्ढे में या युहीं खुले में बहा दिया जाता है. जिसमें कीड़े और मच्छर को पनपने का मौका मिलता रहता है. यह बात सिर्फ आगरा के गाँव तक ही सिमित नहीं है बल्कि भारत के लगभग सभी गांव की कमोबेश यही स्थिति है. लगभग पुरुषों के कपड़े भी महिलाएं ही धुलती हैं.


शौचालय का प्रयोग

सुल्तानपुर के लम्भुआ ब्लाक के पांडेपुर और आजमगढ़ के अतरौलिया में सुखीपुर ग्राम की महिलाएं बताती हैं की यहाँ सभी महिलाएं खुले में शौच जाती हैं, जो शौचालय बने हैं वे नाम के ज्यादा हैं, काम के कम. किसी में दरवाजा नहीं तो किसी में गड्ढा ही नहीं खुदा. आगरा के कई ग्रामीण इलाकों में महिलाओं ने बताया कि हमें पानी दूर से लाना होता है ऐसे में हर शौच के बाद शौचालय में कम-से-कम एक बाल्टी पानी डालना होता है तो ऐसे में हम बाहर जाना ही ज्यादा पसंद करते है.

पुरुष वर्ग आज भी शौचालय में जाना पसंद नहीं करते. वे इसे जनानियों के लिए जरूरी मानते हैं. गाँव के बूढ़े लोग कहते हैं की हमारी तो उम्र गुजर गयी खेत में जाते हुए तो अब मरने की बेला में हम इसमें नहीं जायेंगे फिर खेत के खुले का आनंद का अलग है.


बर्तन धुलना और शौच के बाद हाथ धुलना

गाँव के लगभग सभी घरों में राख और धान की भूसी से बर्तन धुले जाते हैं. बर्तन धुलने का स्थान कुछ ज्यादा साफ-सुथरा नहीं होता. शौच के बाद आधे से अधिक लोग मिट्टी से और शेष चूल्हे की राख से अपने हाथ धुलते हैं. साबुन से हाथ धोने वाली पुरुष तो नजर आ जाते हैं पर कोई औरत यदा-कदा ही नजर आती है.

इलाहाबाद के मऊआईमा की रुख्शाना कहती हैं की- हमार परिवार म तो सभी जनानी शौच के बाद मिट्टी से ही हाथ धोती हैं! भईया बड़ा परिवार बा ,साबुन-सरफ के खर्चा वेसनय बहुत बा.बर्तन के विषय में पुछने पर बताया की-माटी और राखी से सब बर्तन माजत हैं.  

दूसरी तरफ यदि डॉक्टरों की मानें तो गाँवों में लोग खुले में शौच और खेतों पर काम करने के लिए नंगें पैर चले जाते हैं जिससे उनके शरीर में कीड़े पहुंच जाते हैं, जो आंतों में पहुंचकर खून चूसते हैं और उससे  शरीर में खून की कमी हो जाती है.  दूसरी तरफ मिट्टी और राख से बर्तन मांजने पर भी सबके बीमार होने का खतरा बना रहता है. खाने-पीने में साफ-सफाई न होने से अतिसार, हैजा, जुकाम, पेट की कई बीमारियां और बच्चों में डायरिया जैसी समस्या होती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार डायरिया से भारत में 4 लाख बच्चे मर जाते हैं जिन्हें सिर्फ साफ-सफाई पर ध्यान देकर बचाया जा सकता है. लंदन स्कूल ऑफ हाइजिन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के अनुसार, कायदे से हाथ धोकर 47 प्रतिशत तक डायरिया के खतरे को कम किया जा सकता है. विश्व बैंक की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 53 प्रतिशत लोग खुले में शौच जाते हैं.


खाने-पीने का सामान दुकानों पर खुला रख कर बेचना

गांवों में भी चाउमीन, बर्गर, टिक्की, समोसा, ब्रैड-पकोड़ा, पानी-पूरी, सिकंजी ने अपनी जगह बना ली है,जूस की दुकाने भी लगी होती हैं. नास्ते और मिठाई की दुकानों का कहना ही क्या? सभी-की-सभी में सामान खुला ही रहता है और उससे मधुमक्खी, चींटे और मक्खी अपना आहार ले रही होती हैं. सड़क के किनारे होने के कारण धूल आना तो स्वाभाविक ही है. मिठाईयां भी गाँव के लोग रोज-रोज नहीं खरीदते  तो वह कितनी बासी होती है यह आप खुद समझ सकते हैं. ऐसी चीजे खाकर आदमी बीमार नहीं पड़ेगा तो और क्या होगा. 
    
मासिक धर्म के दौरान कपड़े का इस्तेमाल

ग्रामीण महिलाएं अपनी व्यक्तिगत साफ-सफाई को भी नजरअंदाज करती हैं. ज्यादातर महिलाएं और किशोरियां मासिक धर्म के दौरान पुराने कपड़े को फाड़ कर उसका इस्तेमाल करती हैं,  कपडे को भी सबकी नज़रों से छुपा कर विशेष रीति से सुखाया जाता है. जिससे वह कई बार बिना पूरी तरह सूखने से पहले ही दुबारा इस्तेमाल में ले लिया जाता है. उससे इन्फेक्शन होने का ख़तरा होने के साथ यौन रोग होने की संभावना भी बढ़ जाती है.
 
जब हमारे द्वारा इस विषय पर बातचीत करने की कोशिश की गयी तो लगभग सभी बात करने से कतराने लगी. सैनेटरी पैड्स के विषय में पूछने पर पता चला की उसके विषय में लगभग सभी को पता है. पर कोई दुकान से उसे नहीं खरीदता. क्योंकि पहले तो वह महंगा होता है, दुसरे वह आस-पास नहीं मिलता और तीसरे बाजार में अधिकांश दुकानदार आदमी होता है.

दुनिया भर में सामाजिक मुद्दों पर सर्वे कराने वाली संस्था नीलसन द्वारा साल 2011 में भारत में किए गए एक अध्ययन के अनुसार 81 फीसदी ग्रामीण महिलाएं मासिक धर्म के दौरान कपड़े का प्रयोग करती हैं.


डॉक्टरी सलाह

ग्रामीण भारत में जल्दी डॉक्टर से परामर्श नहीं लिया जाता, छोटे-मोटे रोगों का इलाज खुद देसी दवा से करने की कोशिश की जाती है जब बात नहीं बनती तब अस्पताल ले जाया जाता है ऐसे में कई लोग तो  बीच रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. साधारण चोट या घाव हो जाने पर सुरती, मिट्टी का तेल, चुना लगाया जाता है और किसी भी पुराने कपड़े से बांध दिया जाता है. घाव पके नहीं इसलिए गर्म सरसों का तेल उस पर डाल दिया जाता है. फोड़ों पर मदार का दूध, कान दर्द करने पर केले का पानी या गेंदे की पट्टी का पानी चम्मच में उबाल कर कान में डाल दिया जाता है. लोग कहते है की यहाँ तो रोज किसी-ना-किसी को चोट लगी रहती है तो कितना टिटनेस के फार लगवावें. मलेरिया, टिटनेस, केंसर जैसे रोगों का पता भी उनकी अंतिम स्टेज में ही लग पाता है. महिलाएं गाँव में महिला डॉक्टर के ना होने के चलते पुरुष डॉक्टर से यौन रोग के विषय में बात करने में भी झिझकती हैं.


मुख्य समस्या  

ग्रामीण लोगों से बात कर यह तो साफ हो गया की उनकी साफ-सफाई की समस्याएं जागरूकता की कमी, अशिक्षा, निर्धनता और काम की अधिकता से जुड़ी है. जिसके चलते वह चाह कर भी सम्पूर्ण स्वच्छता हासिल नहीं कर सकते. लगातार उड़ती हुए धूल-मिट्टी रसोई तक आती है. एक-काम-के बाद दूसरा लगा रहता है ऐसे में दाना-चबेना तो बिना हाथ धुले ही किया जा सकता है क्योंकि हाथ धुलने के बाद हाथ पोंछने की भी समस्या खड़ी हो जाती है और परिवार बड़ा होने के कारण तौलिया का इस्तेमाल संभव नहीं है.

प्रभावी कदम

ग्रामीण लोगों को जानकर मुझे लगता है की पुरुषों में जानकारी तो है पर उनमे जागरूकता नहीं है और महिलाओं को ना जानकारी है और ना जागरूकता. सरकार, निजी क्षेत्र और एनजीओ को इस विषय पर काम करने की जरूरत है. कुछ मुद्दे सिर्फ उचित ध्यान देकर ही ख़त्म किये जा सकते हैं जैसे महिलाओं की स्थिति में यह भी महसूस किया गया की शौचालयों के साथ अनिवार्य रूप से हैंडपंप लगवाये जाएं और महिला डॉक्टर की भी ग्रामीण परिसर में व्यवस्था की जाय तो कुछ समस्या हल हो सकती है.


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