Wednesday 28 January 2015

बदलता मौसम और प्रभावित होती खेती



जलवायु परिवर्तन अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लगे लोगों के लिए महज समाचार और खबरे हैं. लेकिन सच यह है की हवा-पानी वाली इस समस्या से देर-सबेरे सबको दो-चार होना ही पड़ेगा. भारत में सूखे और बाढ़ की समस्या को जलवायु परिवर्तन के एक रूप में इसे देखा जा सकता है. जहाँ एक और बाढ़ की स्थिति होती है तो दूसरी तरफ सूखे का मंजर. तापमान और वाष्पीकरण में वृद्धि के कारण सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है. यह सच है की कृषि से भी जलवायु परिवर्तन पर असर पड़ रहा है तो दूसरी तरफ़  जलवायु परिवर्तन से कृषि भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पा रही.

जाहिर है की कार्बन-डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस-ऑक्साइड, नाईट्रस-ऑक्साइड , सल्फर-डाईऑक्साइड जीवन के लिए आवश्यक हैं पर नियत मात्रा से अधिक हो जाने पर यह समस्या की जड़ बन जाते हैं. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है की वातावरण में कार्बन-डाईऑक्साइड की मात्रा औद्योगिक क्रांति से पहले जहाँ 280 पीपीएम थी वही 1990 तक 353 पीपीएम हो गयी. आईपीपीसी के अनुसार हमारे क्रिया-कलापों के कारण प्रतिवर्ष वातावरण में 380 करोड़ टन घुलती है जिसे पेड़-पौधे, समुद्र द्वारा अपनी क्षमता के अनुसार सोखे जाने के बाद भी ½% अतिरिक्त कार्बन-डाईऑक्साइड वातावरण में मौजूद रहती है. मीथेन गैस में जहाँ 0.9% की वृद्धि दर है वहीँ नाईट्रस-ऑक्साइड 0.25% की दर से बढ़ रही है. इसके अतिरिक्त सीएफसी गैस भी स्थान, ऊंचाई और मौसम के अनुसार ग्रीनहाउस प्रभाव को घटाती-बढ़ाती रहती है. इस बढ़ते हुए तापमान या ग्लोबल वार्मिंग से जीवधारी, वृक्ष और मानव जाती सबके लिए खतरा बढ़ता जा रहा है. इससे स्वास्थ्य, आर्थिक, सुरक्षा, खाद्य उत्पादन तथा अन्य समस्याएं बढ़ती जा रही हैं.

एशिया, दक्षिण अफ्रीका, लेटिन अमेरिका जैसे देशों के गरीब किसान बरसात का मौसम बदलने से खेती करने में परेशानी उठा रहे हैं. यह उन्हें और गरीब बना रहा है. बारिश के इस बदलाव के कारण भारत और अफ्रीका के मक्का उत्पादन में करीब 15% की गिरावट देखी जा रही है. देश में फसल उत्पादन के  उतार-चढ़ाव का कारण कम वर्षा, अत्यधिक वर्षा, नमीं, फसलों पर कीड़े लगना आदि प्रमुख हैं.

जलवायु परिवर्तन के कुछ ऐसे भी कारण हैं जो फसलों को सीधे प्रभावित करते हैं-

औसत तापमान में वृद्धि

औद्योगिकी के शुरुवात से लेकर अब तक पृथ्वी के तापमान में करीब 0.8%की वृद्धि हो चुकी है. निश्चित तापमान पर उगने वाली फसलें इससे प्रभावित होती हैं. आज जहाँ आलू, गेंहू, जौ, सरसों की खेती हो रही है तापमान बढ़ने से उसकी खेती ना हो सकेगी. क्योंकि इन फसलों को ठंडक की जरुरत होती है. तामपान वृद्धि से मक्का, धान या ज्वार में कमी हो सकती है क्योंकि इन फसलों में अत्यधिक गर्मी के कारण दाने नहीं बनते या कम बनते हैं. अत्यधिक वर्षा से जहाँ फसलें नष्ट हो जाती हैं वाही हानिकारक कवक बढ़ जाते हैं, मिट्टी की नमी में बदलाव से मृदाक्षरण पर प्रभाव पड़ता है. वर्तमान में कृषि-भूमि से क्षरण के दर 5-7 टन  प्रति हेक्टेयर की बजाय 30 टन टन  प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष  से ज्यादा हो गया है.     

CO2 में वृद्धि से वातावरण में नमी की वृद्धि

CO2 की मात्रा बढ़ने से सूखे और आग के कारण बहुत सी उपयोगी जातियां नष्ट हो जाएँगी तथा उनकी जगह नुकसानदायक जातियां पनपेंगी. तेजी से बढ़ने वाले पेड़ों को कीड़ों से नुकसान पहुचेगा तथा चरागाहों में बढ़िया घास की पैदावार गिर जाएगी. हालाँकि इसके कारण पोधों की बढ़वार में फायदा होगा पर मिट्टी के ख़राब होने से फसल भी अच्छी नहीं होगी.
जहरीली गैसों का प्रभाव

इस समय वायुमंडल में सल्फर ऑक्साइड की 60% की मात्रा और नाइट्रोजन ऑक्साइड की 50% की मात्रा उत्पन्न होती है. वातावरण में नमी के संपर्क में आते ही ये गंधक, अम्ल और नाइट्रिक अम्ल बनातीं हैं जो अम्लीय वर्षा का कारण बनता है और जब इस वर्षा का पानी खेतों में मिलता है तो खेत की सतह को अम्लीय कर देता है जिससे मिट्टी के अंदर बसने वाले सूक्ष्म जिव-जंतुओं, जीवाणुओं, कवकों आदि को अम्ल की विषाक्तता नष्ट कर देती है. धरती की उपरी सतह के पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं. मिट्टी की गुणवत्ता घट जाती है और पौधों का विकास बहुत धीरे पड़ जाता है.

ओजोन परत में कमी

सीएफसी गैसों  के कारण ओजोन परत कमजोर होती जा रही है. ओजोन परत के मात्र 1% छीजन से पराबैंगनी किरणों में 2% का इजाफा और उसी अनुपात में खाद्य और जीवन पर भी विनाशकारी प्रभाव पड़ता है.

जाहिर है की जलवायु में होने वाले बदलाव प्रत्यक्ष रूप से खेती को और अप्रत्यक्ष रूप से किसान की आर्थिक स्थिति, उत्पादन व उत्पादकता पर प्रभाव डालती है. इस लिए इस पर गंभीर रूप से विचार किया जाना चाहिए. 

किसान अपनी दिनचर्या बदल कर जलवायु परिवर्तन को कम कर सकते हैं. पेड़ों का संरक्षरण, खाना पकाने और प्रकाश  के लिए  के लिए गोबर-गैस का इस्तेमाल, रासायनिक उर्वरकों और छिडकाव  के स्थान पर जैविक खाद और नीम मिश्रित छिडकाव, वर्षा के पानी का संचय, वाहनों का कम-से-कम प्रयोग और अधिक-से-अधिक पेड़ लगाकर अपना सहयोग दे सकते हैं और अपनी खेती और खेती से होने वाले उत्पादन को बनाये रख सकते हैं.

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