Thursday 29 January 2015

गणतंत्र का सपना कब होगा पूरा



 26 जनवरी को हमने 66वा गणतंत्र दिवस मनाया और देश ओबामा जी ने भी भारतीय स्वर में भरतीयता की बात की. उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता को ही भारत का संबल बताया पर मैं कहूँगा की यदि हम इस रास्ते से न भटके तो भारत दुनिया का सिरमौर बन सकता है. यदि अहम वैश्विक परिदृश्य में देखें तो अधिकतर समस्या धार्मिक उन्माद की ही चल रही है. सारे आतंकी की आत्मा उसी से प्रेरित है. इस दिशा में वास्तव में कलियुग चल रहा है क्योंकि जो लोग धर्म के तत्व को नहीं समझते वही जिहाद फैलाते हैं. पर भारत के लिए यही कहा जा सकता है कि-

मंज़िल पर चल पड़े हैं पाँव,   कभी है धूप कभी है छाँव

हम फिर से गणतंत्र की तरफ लौटते हैं. आप सब जानते हैं की जब संविधान बना तो कहा गया कि सब आदमी बराबर होंगे. जाहे वह प्रधानमंत्री हो या दूर-दराज का किसान. सबके लिए क़ानून बराबर होगा और सब अपने ढंग से जी सकेंगे. पर वास्तविकता इसके उलट हुई. आज भी आम लोगों के साथ कानून खिलवाड़ करता मिल जाता है. अपराधी पकड़ में ना आने और दबाव के चलते निर्दोष को भी कई बार फ़ांस दिया जाता है या उन्हें उन अपराधों की भी सजा दे दी जाती है जिनसे उनका कोई सरोकार नहीं होता. किसान आज भी आत्महत्या कर रहा है, सब्सिडी चलती तो है पर जरूरतमंदों तक पहुंचती नहीं है, दूर-दराज के क्षेत्रों में लोग विकास की आस लगाये बैठे हैं और वहीं के विधायक और सांसद अपने कोटे के पैसे को विकास पर खर्च नहीं कर पा रहे हैं. 

सामूहिक मार-पीट या दुश्मनीवश नाबालिग बच्चों को भी आपराधिक केस में लपेट दिया जाता है, गांवों में आज भी पुलिस किसान और गरीब लोगों को परेशान करना अपना हक समझती है और उनकी प्राथमिक रिपोर्ट तक लिखना अपना तौहीन समझती है. लोग अभी भी  बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं. डॉक्टर गांवों में अपनी सेवा देने के लिए तैयार नहीं हैं. सामूहिक नसबंदी में लोगों की जान तक चली जा रही है. किसान खेत में पानी और उर्वरक के लिए तरस रहे हैं और उर्वरक की रातों-रात कालाबाजारी हो जा रही है. शिक्षा के नाम पर भी सिर्फ छलावा मिल रहा है. पांचवी कक्षा का बच्चा पहली और दूसरी कक्षा के सवाल नहीं हल कर पा रहा है. पैसे लेकर नाकाबिल को भी डॉक्टरी प्रवेश परीक्षा में सफल घोषित किया जा रहा है. सरकारी नौकरी खासकर पुलिस, ग्रुप डी, टीचर नियुक्ति के लिए खुलेआम पैसे मांगे जा रहे हैं. व्यापारी वर्ग भी परेशान है.

सरकारी अस्पताल के आईसीयू से गरीब महिला को इसलिए निकाल दिया जाता है की उसके परिवार के पास न तो पैसे हैं और ना ही किसी रसूखदार व्यक्ति या नेता से संपर्क. सरकार गाँव गाँव में सड़क बनवाने को लेकर ढोल पीट रही है पर कई धार्मिक और लाखों की संख्या में लोगों से जुड़ने वाले क्षेत्रों में अभी भी सड़क का अभाव है. कई गांवों में सड़क-संपर्क की दुश्वारियों के चलते लोगों की शादियाँ नहीं हो रही हैं और लोग बीमार होने पर अस्पताल पहुचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं. 

मुकदमें हैं की एक बार आप किसी तरह उसमें फंस गए तो हो सकता है की निर्णय आपकी मौत के बाद ही आये. कई बार तो लोग अस्पताल परिसर में दम तोड़ देते हैं पर अस्पताल प्रशासन के कान में जूं नहीं रेंगती. हत्या को आत्महत्या का जामा पहनाने की कोशिस की जाती है. रोज अख़बारों में बच्चियां गायब होने गुमशुदी होती है पर सुन कर ताजुब्ब होता है की उनमें से कितनी मिल पातीं हैं. कोठे आज भी अधिकतर बेबश लड़कियों से रोशन हैं और उन्हें कोई मानवीय अधिकार भी नहीं दिए जाते. सरकार नशा बंद करने के लिए अभियान चलाती है पर नशीले उत्पाद पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती और भी ऐसी कई समस्याएं हैं जिनसे हम ना चाहते हुए भी रोज दो-चार होते हैं ट्रैफिक पुलिस वाले को सौ की जगह पचास "खिलाने" की बात आये या फिर रेल में टिकट पक्की करने के लिये टिकट चैकर को "मनाने" की बात हो, बिजली बिल कम करवाना हो या सड़क पर रेहड़ी लगनी हो, सिर्फ पैसे फेंक कर और इन्शानियत को मार कर काम करवाए जाते हैं.

 
हमने राजनीतिक आजादी तो प्राप्त कर ली है लेकिन अभी सामाजिक और आर्थिक आजादी प्राप्त करनी है. यानि प्रजातंत्र में गणतंत्र तभी मजबूत होगा जब व्यक्ति राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सभी आधार पर बराबर होगा. 1970 के दशक में एक नारा गूंजता था... यह आजादी झूठी है, क्योंकि आधी जनता भूखी है. और सचमुच फूड सिक्योरिटी बिल इस बात की गवाही दे रहा है की अभी भी जनता भूखी है. आजादी के एक और मायने तब समझ में आते हैं, जब हम 15 अगस्त और 26 जनवरी पर हर चौराहे पर झंडे बेचने वालों को देखते हैं. भारी गुरबत में जी रहे बच्चे राष्ट्रीय ध्वज को बेचते दिखाए देते हैं. यहां यह भी प्रश्न उठता है कि हमारे स्वतंत्रता का मूल्य क्या है? क्या हमने स्वतंत्रता का मूल्य समझा है? अगर समझा है तो फिर सभी लोग बराबर क्यों नहीं हैं. 


लालझंडा उठाए हुए हथियार से लैस नक्सलियों की बात करें तो वह भी एक तरह से अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं. वह राष्ट्र में चल रहे विकास से सहमत नहीं हैं इसलिए उन्होंने खुद विकास का एजेंडा तय करने की सोची है. रोज धर्मान्तरण की खबरे उछल रही हैं. ऐसे में क्या हम यह कह सकते हैं कि यह आजादी पूरी है? मुझे नहीं लगता कि हम पूर्ण रूप से आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक और यहां तक की धार्मिक तौर पर स्वतंत्र हैं. जब तक भारत में रह रहा आखिरी छोड़ पर खड़ा व्यक्ति अपने आप को समस्त रूप से स्वतंत्र महसूस नहीं करेगा, उसे हर तरह से बराबरी का दर्जा नहीं मिल जाता, तब तक यह आजादी पूर्ण नहीं होगी. इसलिए अगर हमको अपने राष्ट्र को सशक्त बनाना है, इस प्रजातंत्र को सशक्त बनाना है, तो हमको इन सभी आयामों में समाज के सभी व्यक्तियों और समूहों को बराबर-बराबर का अधिकार देना होगा, तभी यह आजादी पूर्ण मानी जाएगी तभी सबके लिए गणतंत्र प्रासंगिक होगा. 



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