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खुले एवं सूखे स्थान पर होने के कारण इसके तने मोटे होकर जमींन के अन्दर से प्राण शक्ति खिंच रहे हैं. तने ऊपर उठकर अनेक शाखाओं और उपशाखाओं में विभक्त हो कर चारों ओर फैल कर हमारे खुद के विकास को दर्शाने लगा है. इसकी आयु की गणना का स्वतः अनुमान उसके तने और शाखाओं की मोटाई एवं स्वरूप पर दिखता है. अन्य छोटे और नये बरगद के वृक्ष के तने जहाँ गोल और शाखाएँ बच्चों की त्वचा की तरह चिकनी होती है, वहीँ इस बूढ़े बरगद के तने और शाखाएँ खुरदरी, पपड़ी वाली हो गईं हैं, जैसे बुजुर्गों की झुर्रियां हों. और तने लम्बे, चौड़े घेरे गोल न होकर अनेक तारों जैसी जटाओं का समूह सा जनाई पड़ते हैं. इसे देख कर स्कन्दपुराण का प्रसंग स्वतः स्मरण हो जाता है-‘ अश्वत्थरूपी विष्णु: स्याद्वरूपी शिवो यत:’- अर्थात् पीपलरूपी विष्णु व जटारूपी शिव हैं. उसकी विशालता देखकर हरिवंश पुराण के प्रसंग-
भारत में बरगद प्राचीन काल से एक महत्त्वपूर्ण वृक्ष माना गया है. वेदों से लेकर काव्य रचनाओं में भी इसका उल्लेख आता है. बरगद
को लेकर अनेक धार्मिक विश्वास और किंवदंतियाँ प्रचलित हैं. 'वट सावित्री' की पूजा इसका प्रमाण है. बरगद के पेड़ की छाल में विष्णु, जड़ में ब्रम्हा और शाखाओं में शिव का वास
मानते हैं. इसीलिए इसे काटना पाप
समझा जाता है. वामन पुराण में यक्षों के राजा 'मणिभद्र' से वट वृक्ष उत्पन्न होने
का उल्लेख है-
यक्षाणामधिस्यापि
मणिभद्रस्य नारद।
वटवृक्ष: समभव तस्मिस्तस्य रति: सदा।।
वटवृक्ष: समभव तस्मिस्तस्य रति: सदा।।
कहते हैं
बरगद-पीपल खुद लगते हैं ये दोनों पौधे लगाए बीज से पल्लवित नहीं होते बल्कि पक्षी-बीट
से ही यत्र-तत्र खंडहर या पुरानी इमारत में अपने आप पनप जाते हैं. पर गाँव से बाहर
सड़क किनारे का बरगद कैसे पनपा कोई नहीं जानता. चिरपरिचित बुढ़ा बरगद आज भी वैसा ही खड़ा है जैसा हमारे छुटपन में खड़ा था. पूंछने
पर दादा-बाबा भी अपनी स्मृति पर जोर डालते हुए कहते थे-‘जब से देख रहे हैं, यह ऐसे ही खड़ा है.’ खूब साथ दिया है उसने उनका और हमारा. यह पुरुखों के बाद हमारे
साथ भी बढ़ता रहा और गर्मी-जाड़ा-बरसात, सभी मौसम सहता, अपनी भुजाएं फ़ैलाता, जड़ों
को मिट्टी में फैलाता और जकड़ता, शाखाओं को बरोह-स्तंभों के सहारे टिकाता बढ़ता रहा और इतना
विशालकाय हो गया है की पूरा गाँव उसकी छाँव में आ जाय. मुझे तो आज भी उसकी विस्तारवादी
मानसिकता कुंद हुई नहीं लगती, अभी और भी विस्तार उसमें शेष नज़र आता है. पर यह विस्तार-छाँव
शासक का नहीं, अपितु आसान जमाए साधू का है, धीर-गंभीर बुजुर्ग का है. जिसके तले
बैठ कर शांति मिलती है क्रोध जाता रहता है, हम जैसों को सीख मिलती है.
खुले एवं सूखे स्थान पर होने के कारण इसके तने मोटे होकर जमींन के अन्दर से प्राण शक्ति खिंच रहे हैं. तने ऊपर उठकर अनेक शाखाओं और उपशाखाओं में विभक्त हो कर चारों ओर फैल कर हमारे खुद के विकास को दर्शाने लगा है. इसकी आयु की गणना का स्वतः अनुमान उसके तने और शाखाओं की मोटाई एवं स्वरूप पर दिखता है. अन्य छोटे और नये बरगद के वृक्ष के तने जहाँ गोल और शाखाएँ बच्चों की त्वचा की तरह चिकनी होती है, वहीँ इस बूढ़े बरगद के तने और शाखाएँ खुरदरी, पपड़ी वाली हो गईं हैं, जैसे बुजुर्गों की झुर्रियां हों. और तने लम्बे, चौड़े घेरे गोल न होकर अनेक तारों जैसी जटाओं का समूह सा जनाई पड़ते हैं. इसे देख कर स्कन्दपुराण का प्रसंग स्वतः स्मरण हो जाता है-‘ अश्वत्थरूपी विष्णु: स्याद्वरूपी शिवो यत:’- अर्थात् पीपलरूपी विष्णु व जटारूपी शिव हैं. उसकी विशालता देखकर हरिवंश पुराण के प्रसंग-
न्यग्रोधर्वताग्रामं भाण्डीरंनाम नामत:।
दृष्ट्वा तत्र
मतिं चक्रे निवासाय तत: प्रभु:।।
भंडीरवट की भव्यता
से मुग्ध हो स्वयं भगवान ने उसकी छाया में विश्राम किया- की याद आ जाती है.
आज भी जब उसे देखता हूँ तो लगता हैं की क्या मनुष्य इतना सुदृढ़ हो सकता है जितना यह बूढा बरगद
है. उसने ताउम्र कितना-कुछ वहन नहीं किया है. कभी वह खुद में ही पूरा मोहल्ला बन बैठा था.
उसकी जड़ से लेकर आकाश छूती शाखाओं पर अनेकों पंछी, सांप, चूहे, बंदर, चमगादड़,
कीड़े-मकोड़े और न जाने किन-किन जीवों ने साधिकार बसेरा बसा रखा था. एक किनारे
भैंस-गाय बंधती हैं तो मुख्य चबूतरे पर पूजा होती है, मन्नते मंगती है, चौपाल,
पंचायत चलती है. पेड़ के बीच छाव में गाँव की राजनीति चलती थी. अन्य किनारे पर
बूढ़े-बुजुर्ग झपकी पाते थे और बच्चे लटके बरोह से झूल,पेड़ पर चढ़ ‘टारजन’ बनते थे. पथिक
भी इतनी लम्बी-चौड़ी छाँव का लोभ कैसे त्याग सकता है और बरबस खिंच चला आता था और कुएं
का पानी और शीतल छाँव में अपनी थकान मिटाता था. दुकाने भी गुमटियों,ठेले-खोमचे में
चल निकली थी साथ ही नाऊ, सायकिल बनाने की दूकान भी चल रही थी.
इसकी बूढ़ी पर
जवान आँखों ने क्या कुछ नहीं देखा? कहते हैं इसके नीचे कांग्रेस हो या कामरेड-सभी बड़े नेताओं ने यहाँ अपनी आवाज उठाई थी. अंग्रेजों ने भी यहाँ फ़रमान जारी किए थे. राजा-महाराजा की शानो -शोकत से लेकर आजादी के लिए सर्वश्य न्योछावर करते शक्ले देखी हैं इसने. तो दूसरी तरफ आजादी के बाद के मुरझाए जनता की चिंताओं और नेताओं के शिथिल
होते, भ्रष्ट होते, मुखोटा लगाते शक्ले देखी है इसने. इसने तो देशभक्त बेटों के फांसी
का वजन भी खुद उठाया है. छटपटाते प्राणों की चीख, गोलियां और गालियाँ सभी को झेला है. यह शांत सा दिखने वाला आकाश प्रभृत वटवृक्ष के गर्भ में कितने ही
राज आज भी दफ्न हैं पर यह सदैव की भांति आज भी मौन है.
कितनी
दम्पत्तियों ने इस बरगद से मनुहार कर अपनी संताने पायी हैं और कितनों स्त्रियों ने बरगद देवता से
गुहार अपने
सुहाग की रक्षा की है- सदियां इस की गवाह
हैं. वह कितने कुकर्मियों के दंड का गवाह है, तो कितने गाँव के झगड़ों का पैरोकार भी है-यह
बरगद. गाँव के सभी झगड़े चाहे कितने ही पेचीदे क्यों न हों यहीं आकर सुलझ जाते थे. कितने
बच्चों के जन्म, मुंडन, कितने युवक-युवतियों के विवाह और कितनी डोलियों से निहारती
आँखों का साक्षी है यह बरगद. कितने बच्चों-बच्चियों, बहुओं के नर्म स्पर्श;
पुरुषों के कठोर हाथों और बुजुर्गों के काँपते हाथों की पहचान है इसे. कहते हैं जब
गाँव सोता था तो बरगद जागता था और गाँव की रखवाली करता था.
आज भी याद है रात
में यह कैसे अपना विकराल दानव रूप प्रकट करता था. माँ कहती थी- ‘इसमें ब्रम्ह रहता
है.’ चमगादड़ों और उल्लुओं की आवाजें इसे और भी भयानक बना देती थी. आप खुद सोचो
जिसकी सघनता को दिन में सूर्य की किरणें न भेद पाती हों उस वृक्ष के नीचे रात का
दृश्य क्या होगा. उसपर स्वतंत्रता के समय की कहानियां और वीर नायकों की
कुर्बानियों के भूत सदैव जिन्दा रहे. बच्चे दिन में चाहे जितनी
धमा-चौकड़ी क्यों न करले पर रात में अकेले भूल कर भी उधर नहीं जाते थे.
बरगद के नीचे
लगने वाले मेले को हम कभी भी नहीं भूल सकते. गाँव में गुड़ की जलेबी, गट्टे,
मिठाइयाँ, नमकीन, खैनी-सुरती, चूड़ी, टिकुली, हार, कंगन से लेकर झूला, बांसुरी,
गुब्बारे,फिरकी, भदेली, कड़ाही सब मिल जाते. आज भी मिठाइयों और नमकीनों के स्वाद जीभ पर
पानी ला देता है.
बाबा कहा करते
थे की बरगद की नीचे बनियों की चलती दूकान के कारण ही इसे ‘बनियों का पेड़ (बैनियन
ट्री)’ पुकारा गया. ‘बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज’ भी बरगद की छाँव में पल्लवित हुआ है.
सुना है इंडोनेशिया में बरगद वृक्ष साम्राज्य का बड़ा-बुजुर्ग होने के चलते इस कदर
सम्मानीय है की मार्ग में कहीं यह दिख जाय तो वाहन चालक हॉर्न बजाकर आज भी अभिवादन करता है- जैसे हम बुजुर्गों को राम-राम करते हैं. बरगद अपनी विशेषताओं और लंबे जीवन के
कारण अक्षयवट बना और इसी कारण इसे भारत का राष्ट्रीय वृक्ष भी करार गया.
स्कूल के मास्टर
साहब कहते थे की वट-बीज बनो अन्दर विशाल वृक्ष की संभावनाओं को संजो कर रखो और
अनुकूल परिस्थिति होते ही वृहद् विस्तार करो- तब समझ में नहीं आता था की इन शब्दों
का तात्पर्य कितना गंभीर है पर अब समझ में आने पर हम खुद जटिल बन गए हैं.
गाँव का बरगद
आज भी वैसे ही खड़ा है. पर अब वह भाव नहीं रहा. बरगद के किनारे से पक्की सड़क गुजर गई है. दिन
भर वाहनों का रेला लगा रहता है. बड़ी-बड़ी तरह-तरह की पक्की दुकाने खुल गयी हैं.
बरगद की मान्यता अब पारमार्थिक ज्यादा हो गयी है आत्मिक कम या यों कहें ख़त्म हो गयी है. कहीं तो कुछ
है जो छूट रहा है और दिल को कचोट रहा है. क्योंकि अब बरगद के नीचे गाँव नहीं बसता.
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