Wednesday 17 December 2014

गाँव की भूली-बिसरी यादें

गाँव का इतिहास सात सौ साल पुराना है जब कल्चुरी अकालदेव ने मंदिर, तालाब  उपवन की रचना कर, इसे बसाया था. पहले खुशहाली फिर सार-दर-साल अकाल और फिर हरित क्रांति के बाद दोहरी फसल होने लगी, अब अकाल ज्यादा महत्पूर्ण नहीं रहा प्रोद्योगिकी विकास से खेत खली नहीं रहते. सरकारी मंडी है, नए बाजार और नई राइस मील लगती जा रहीं हैं. घर तक पक्की सड़क पहुँच रही है और बिजली से गाँव का अँधेरा छट रहा है. गाँव में अख़बार आने लगा है और किसान देश-दुनिया से वाकिफ होता जा रहा है. मोबाइल फ़ोन और इन्टरनेट कनेक्शन भी अपने पैर पसार रहे हैं. फ्रिज, कूलर, वाशिंग मशीन, पक्के मकान, दरवाजे पे खड़े वाहन घर की शोभा बढ़ा रहे हैं.

पर अब मैं जब गाँव जाता हुए तो मुझे पहले वाली आत्मीयता नहीं दिखती; वह दिल खोल कर मिलना नहीं दिखता; किसी के दुख में जोश-खरोश से शामिल होना; विवाह-शादियों में सहायता करना, खांट पहुँचाना, बिछोने, बर्तन देना नहीं दिखता. बच्चों का मस्ती में खेलना और खेतों में मेहनत से काम करता आदमी नहीं दिखता. ना तो अब घरों में गोरेया घोसला बनाती है और ना ही दूध-मट्ठा पड़ोसियों को दिया जाता है. दरवाजे बढ़ रहे हैं पर शादी-ब्याह की अनिवार्य शर्त ‘पूँछ संख्या’ अथार्त दरवाजे पर बंधे  पशुओं की संख्या घटती जा रही है. शहर की बीमारी गाँव में पहुच रही है और लोग लिट्टी-चोखा छोड़ के चोवमिन,बर्गर खा रहे हैं.     
 घर-चौबारे की रोजाना बैठकबाजी, आत्मीय चर्चा और सबसे जोहर-पालगी के दिनों में जब गाँव के किसी भी घर में मेहमान आता तो सारे गाँव में उसकी आव-भगत होती. कुएं से ताजा पानी लाया जाता चुन-चुन के आम खिलाये जाता, गन्ने का रस पिलाया जाता, ताजा गुड़ खिलाया जाता; मायके आई बहन बेटियों का हाल-चाल जानने के लिए गाँव की सारी महिलाएं घर का काम छोड़कर उसके घर जा कर  मिलती और उसका हाल जानती, बड़े-बूढ़े भी उसके बारे में पूंछते और सलामती की दुआ देते. लोगों में इतनी उत्सुकता और ख्याल  होता था कि पता ही नहीं चलता था की आँगन में कौन अनजाना है और कौन घर का. बड़े-बूढ़े कई कोसों दूर के लोगों के और उनके परिवार के बारे में सहज ही बता दिया करते थे. शादी-ब्याह या किसी पारिवारिक आपदा में लोग इस तरह शरीक होते और काम करते थे की अपने-पराये का बोध ही नहीं होता था और सारा काम आसानी से हो जाता था. सारे गाँव के लोग एक ही टीवी पर महाभारत देखते थे और धार्मिकता का पूरा माहोल बन जाता था. बड़े-बूढ़े पीछे खाट पर बच्चे जमीन पर और महिलाएं घूंघट में बैठती थी और सारे लोग महाभारत के रंग में रंग जाते थे. 

बच्चे बिना किसी दबाव के स्वतंत्र होकर तालाब,नदी और नहरों में नहाते थे. पशुओं को चराते थे और बिना खर्चे वाले शारीरिक श्रम वाले खेल खेलते थे और कूदते –फांदते रहते थे. जिससे उनके शरीर चुस्त-दुरुस्त बने रहते थे और उनका स्टैमिना भी गजब का होता था. 1-2 किलोमीटर दौड़ना, घंटों तैराकी करना, पेड़ों पर चढ़ना, उनके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था. चिंता की लकीरें उनके माथें पर नहीं होती थीं. ना ही किसी के बाल झड़ते थे और ना ही सफ़ेद होते थे. सावन का झूला और पहली बारिस से मिट्टी की खूसबू से सारा गाँव महक उठता था और कोयल की कूक और मोर के नाचने से मन बाग़-बाग़ हो जाता था.

महिलाएं घरों में काम करती और घर में आये अनाज को कूट कर,पीस कर तैयार करतीं इस दौरान लोकगीतों का जो स्वर बहता वह सारे घर को उमंग से भर देता. उनके गीतों में प्यार की मिठास, लड़की के विदा होने का दर्द, चुहलबाजी और सास-बहूँ की नोक-झोक होती. बूढी महिलाएं घर में नयी आई महिलाओ और बच्चों को काम के सलीके बतातीं, छोटे बच्चों की मालिश करतीं और सभी से सम्मान पातीं थीं. इससे प्रेम और लगाव का माहोल बन जाता था. बच्चा उस चीज को सीख कर आदर-सम्मान को आत्मा में बसा लेता था.

अगहन लगते फसल घर आने लगती और मेला बाजार का मौसम शुरू हो जाता. तमसबिनो, धगचघा, बाहरूपियों के झुंड आने लगतेहम दिन भर उन्ही के पीछे लगे रहते. सारे लोग मिलकर होली, दीपावली, दशहरा को मनाते थे और इसके लिए तैयारी महीनों पहले से शुरू हो जाती थी. सब मिलकर होलिका दहन करते और रामलीला में मंचन करते थें.

पर अब मैं जब गाँव जाता हूँ तो सारा माहोल ही बदला हुआ पाता हूँ. अपने ही गाँव में अपने आप को अजनबी जैसा पाता हूँ. बड़े-बूढों को छोड़ दें तो नयी पीढ़ी के लिए हम अजनबी से हैं. किसी-को-किसी और से मतलब बहुत कम हो गया है. लोग दूसरों से मिलाने के बजाय घर पर बैठ कर टीवी देखना ज्यादा पसंद करने लगे हैं. औरते भी सास-बहु के प्रोग्राम में फस चुकीं हैं उन्हें भी आस-पड़ोस की खबर नहीं होती. शाम को कई महिलाएं मिलकर खेत को जातीं थीं अब वह प्रथा भी घर-घर शोचालय बन जाने के कारण बंद हो गयी. घर-घर पक्के मकान बन गए और खाली जगह को घिरा कर गेट लगा दिया कर घंटी लगवा ली गयी. घर का काम मशीनों से होने लगा और महिलाओं का समूह गायन बंद हो गया. पके मकानों में अब न तो गौरैया घर बनाती है और ना ही गिलहरी घरों के अन्दर आ पाती है. बच्चे भी अब हमारे दिनों में होने वाले आउट डोर गेम नहीं खेलते जिससे उनमें पहले जैसी स्फूर्ति भी नहीं रही. कम उम्र में ही बाल पक रहें हैं और लोगों को बिमारियों ने भी जकड रखा है. नयी-नयी बीमारियां आ गयीं हैं. शादी-ब्याह में भी अब कैटरिंग चालू हो गयी है और पत्तल पर खाने का माहोल ही नहीं रहा. दंगों की खबर से बेख़बर गाँव के गैरमुस्लिम मुखिया, मस्जिद के मुतवल्लीर का झगड़ा निपटा दिया करते थे पर अब वही गाँव आये दिन दंगों की गिरप्त में आ जाता है.

इंटे के भट्टे के कारण आम की फसल पर नुकसान हो रहा है तो गाँव-गाँव आटे चक्की की मशीने चलने से शोर काफी बढ़ गया है जिससे पक्षी भी कम होते जा रहे हैं. मोर भी अब बहुत कम दिखाई पडतें हैं. जिससे पक्के मकान में कच्चे मकान वाला सुख नहीं है. घर-घर गैस के चूल्हे हो गएँ हैं पर आग के चूल्हे की रोटी का स्वाद नहीं है. मैं नए गाँव में शामिल हो गया हूँ पर चाह कर भी अपने गाँव के  पुराने चेहरों की याद दिमाग़ से  नही  निकला पा रहा हूँ.

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