मुस्कराहट की बड़ी बहन हँसी है. आदमी को कुछ
अच्छा लगे तो मुस्कुरा देता है और यदि ज्यादा अच्छा लग जाए तो हँसे बिना नहीं रह
सकता.जीवन में हँसी अगरबत्ती
के धुएं में खुशबू की तरह घुली हो और दायित्वों का निर्वहन हँसी और गंभीरता के
मिश्रण में होना चाहिए. ताकि मुस्कराहट
और हँसी के साथ जीवन का फ़लसफ़ा चलता रहे. मैं छोटी सी जगह से हूँ शायद इसीलिए आज भी
हँसी आते ही मुंह खोल कर हँस पड़ता हूँ नहीं तो कहाँ कोई महानगरों में मुंह खोल कर
हँसता है? हँसी अब एक अस्वाभाविक क्रिया होती जा रही है. बहुत
हुआ तो लोग फटफ़टईया या मुंह बंद हँसी हँस लेते हैं. मुझे तो ऐसा लगता हैं जैसे महानगरों में
आकर लोगों के हँसी के तार दिल से कटते जा रहे हैं. दिल्ली में रहते हुए मुझे कई
साल हो गए पर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में
यदि मुझसे यह सवाल पूंछा गया की-आपने आखिरी बार किस सभ्य समझे जाने वाले को मुंह
खोल कर हँसते हुआ देखा था? तो स्वाभाविक हैं की मैं सही
उत्तर नहीं दे पाउँगा. और मैं यह भी दावे के साथ कहता हूँ की यदि मैं सारे
लाइफलाइन भी यूज़ कर लूँ तो भी सही उत्तर नहीं पा सकूँगा. सुबह-शाम जिसे देखो जल्दी
में नजर आता है और प्रत्येक आदमी अपने गंतव्य के इन्तजार में मेट्रों रूपी पिजड़े
में बंद होता है और जैसे ही उसका स्टेशन आता है वह जल्दी धक्का-मुक्की करते हुए
निकल भागता है.
ऑफिस में आदमी आदमी कम काम करने वाली मशीन
में ज्यादा तब्दील हो जाता है और भावविहीन मशीने हँसती या मुस्कुरातीं
तो हैं नहीं. इनसे हँसी की उम्मीद करना रेगिस्तान के रेत से पानी निकलने सरीखा है.
यहाँ सिर्फ़ बनावटी हँसी चलती है जिसका तार दिल से ना होकर शरीर के किसी और हिस्से से होता है. और इसे हँसने का अधिकार भी सिर्फ़ चुनिन्दा
लोगों के पास होता है-जैसे बॉस, रिसेप्शनिस्ट प्रभृत लोग. पर ऑफिस का पैंट्री बॉय आज भी बात-बात में ऑफिस
में फूहड़ समझी जाने वाली दिल-खोल हँसी हँस देता है. और लोग दबी आवाज में सिर्फ
दूसरों की गलतियों पर हँसते हैं जिसमे व्यंग का पुट होता है वह लोगों के फेफड़े में
खून के प्रवाह को नहीं बढ़ाता; रामदेव की योग-क्रिया अधूरी रह
जाती है. जीवन में हँसी न होने से मन की मलिनता, दु:ख और अवसाद हृदय से उसी प्रकार नहीं निकल
पातें जिस प्रकार नदी के ठहरे पानी से गन्दगी निथर नहीं पाती.
पर मैंने अपनी
गलतियों पर, खुद पर हंसना सीख लिया है. विरोधाभासी लगेगा पर
जब हम अपने ऊपर हंसना शुरू करते हैं तो जिंदगी खुशी का हिस्सा हमारे लिए बढ़ाने
लगती है. हर घटना में हास्य का पुट सामने आने लगता है. यदि आप सतर्क हैं, तो उसे आसानी से अपनी ओर मोड़ सकते हैं, इसलिए सेन्स ऑफ ह्यूमर अपने साथ जोड़े रखें. दूसरों को जो फायदा
होगा सो होगा, लेकिन आप जिंदगी की मस्ती को जान जाएंगे. नहीं तो आपको अपनी खुद की हँसी अनजानी सी लगने लगेगी. किसी ने
कितना सटीक लिखा है-
ख़ुद की हँसी की आवाज़ आज कानों को
अंजान सी लगी
इक बार फ़िर ज़िन्दगी मुझ पर होती
महरबान सी लगी
प्यासी धरती पर जैसे गिरा वर्षा का
रुनझुन पानी हो
खु़दा से जैसे आज मिलि इजाज़त करने
की मनमानी हो
चलो खुल कर तबीयत से आज जी लेते
हैं यारों
ये मौसम, ये ख़ुमारी जो आज अपनी है क्या
मालूम कल फिर अंजानी हो!
अगर आप के अन्दर दबी-कुचली ही सही पर कहीं किसी
एकांत कोने में हँसी छुपी हुई है तो उसे जगाईये और इससे पहले की हँसी की नदी सूख
जाय उसे महासागर में मिला दीजिये. यह तभी होगा जब आप छोटे-छोटे मौके को यों न
जाने देंगे और आज से...अभी से...दिल खोल कर हँसेंगे...
हास्य का हिमायती
अजय कुमार त्रिपाठी
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