Saturday 28 March 2015

एक और सच जो दिखा नहीं

Think About India



केजरीवाल के स्टिंग को कल से आज तक दो-तीन बार सुना। यद्यपि वरिष्ठों के बारे में दिये गए उनके बयान आपत्तिजनक हैं, पर मेरे ख्याल से इस प्रकरण को बहुत तूल देना ठीक नहीं। ज़्यादा अच्छा हो कि इसके बहाने हम उस ख़तरे को भी टटोलें जो अभी धुंधला सा नज़र आता है।
पहले केजरीवाल की बात !! दरअसल, उनका अंदाज़ेबयाँ ठेठ हरियाणवी किस्म का है जिसे झेलना दूसरों के लिये मुश्किल होता है। चूँकि मेरा आधा जीवन हरियाणा में गुज़रा है, इसलिये इस तेवर को पहचान सकता हूँ। सच तो यह है कि केजरीवाल ने वक्त रहते खुद को संभाल लिया, नहीं तो तू-तड़ाक वाली शैली के अभ्यस्त हरियाणवी लोग इतने पर ही नहीं रुकते। अगर आप टेप को ध्यान से सुनें तो 'पीछे लात मारने' वाले प्रसंग में अरविंद दो-तीन सैकेंड तक खुद को कुछ बोलने से जबरन रोक रहे हैं और एक अर्थहीन सी आवाज़ सुनाई दे रही है। मेरा अनुमान है कि वे एक विशेष (अंगसूचक) शब्द का प्रयोग करने को तड़प रहे थे जो सड़क की भाषा और हनी सिंह के गीतों में अक्सर सुनाई पड़ता है।

बहरहाल, किसी को भी इस बात पर शुबहा नहीं होना चाहिये कि यह भाषा अनुचित है। सार्वजनिक जीवन में अपनी नाराज़गी व्यक्त करने की भी एक भाषायी मर्यादा होती है जिसका अतिक्रमण ठीक नहीं माना जा सकता। और जो नेता रात-दिन अपने समर्थकों को स्टिंग करने की सलाह देता हो, उससे तो कुछ अतिरिक्त सावधानी की उम्मीद की ही जानी चाहिये।
और अब दूसरी बात !!! क्या यह सच नहीं है कि जिन शब्दों का प्रयोग केजरीवाल ने किया है, वैसे या उनसे ख़राब शब्द निजी बातचीत में अमूमन हम सब इस्तेमाल करते हैं- कभी गुस्से में तो कभी हँसी-मज़ाक में। हम सब अभी तक के जीवन में अनौपचारिक स्तर पर इतना कुछ ज़रूर कह चुके होंगे कि अगर सारे टेप सामने आ जाएँ तो हमारे सामाजिक संबंध और प्रतिष्ठा शून्य हो जाएँ। अंतर सिर्फ़ इस बात का है कि अरविंद (या अन्य नेताओं) की गलतियाँ राष्ट्रीय मनोरंजन का मसाला बन जाती हैं जबकि हमारी गलतियों को बेपर्दा करने में किसी को रुचि नहीं होती।
इसलिये यह मौका इस गंभीर मुद्दे पर विचार करने का भी है कि स्टिंग ऑपरेशन की क्या हदें और मर्यादाएँ होनी चाहियें? क्या इसका नियमन करना अब ज़रूरी नहीं हो गया है कि जनता के सामने वही स्टिंग पेश किये जा सकें जो सार्वजनिक महत्त्व के हों? यह स्टिंग न भ्रष्टाचार के बारे में है और न ही मुख्यमंत्री के तौर पर केजरीवाल की किसी गलती के बारे में। किसी पार्टी या समूह के लोग निजी बातचीत कैसे करते हैं, इसे सार्वजनिक करने का निरंकुश अधिकार मीडिया को क्यों होना चाहिये? आख़िर निजता का अधिकार नागरिकों के साथ नेताओं और सेलिब्रिटीज़ को भी तो मिलना चाहिये, भले ही उसकी परिधि कुछ सीमित हो।
वस्तुतः हम जिस दौर में जी रहे हैं, उसे 'जासूसी समाज' कहा जाए तो गलत नहीं होगा। हम हर जगह वीडियो कैमरों और वॉइस रिकॉर्डर्स से घिरे हैं। दुश्मनों को छोड़िये, अब तो दोस्तों से भी संभलकर बात करनी पड़ती है क्योंकि हर फ़ोन में रिकॉर्डिंग सॉफ्टवेयर लगे हैं और इस संभावना से कोई कैसे इंकार कर सकता है कि आज का दोस्त कल का दुश्मन भी हो सकता है। क्या जाने कौन हमारी वो बातें सार्वजनिक कर दे जो हमने किसी दोस्त से गप्प मारते हुए बेखयाली में कह दी थीं? कहीं ऐसा न हो कि चौतरफ़ा संदेह के ऐसे माहौल में रहते-रहते हमारे जीवन में निजी, स्वच्छंद और बेपरवाह अभिव्यक्तियों की संभावना ही न बचे; हमारा हर शब्द सार्वजनिकता के दबाव में फ़िल्टर होकर निकले।
ऐसे माहौल में 'बतरस' का क्या होगा? और 'बतरस' नहीं रहेगा तो जीवन में क्या सौंदर्य बचेगा?

मेरे लेखन गुरु  विकाश दिव्यकीर्ति के विचार 

No comments:

Post a Comment