Thursday 4 December 2014

उत्पादकता बढ़ाने के लिए करना होगा कौशल विकास


हमारे देश में असंगठित क्षेत्र के कई ऐसे कार्य हैं जिसके लिए न तो सरकार और ना ही हम ट्रेनिंग की  आवश्यकता को सही से समझ पाए हैं. हम कार्य कर रहे हैं क्या यही काफी है. क्या हमने कभी सोचा की कैसे हम अपनी उत्पादकता को और बढ़ा सकते हैं या इसे कैसे कम मेहनत में, कम समय में सही तरीके से कर सकते हैं. कई लोगो को हंसी आ सकती है की मैं परंपरागत कामों जैसे- कृषि कार्य करने, सामान उठाकर लोड करने, घर बनाते समय नीचे से ऊपर ईटें फेकने की, मिस्त्री बनने की, बच्चे सँभालने की, मजदूरी आदि कार्य करने के लिए ट्रेनिंग की बात कर रहा हूँ. यह बात भी समझने की है की सरकार मनरेगा के तहत १०० दिन का रोजगार तो दे पा  रहा है पर जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है –कौसल निर्माण की वह देने में अभी तक मंथर गति से चल रहा है.
क्यों है जरूरत:
आज आपको एक कुशल मिस्त्री-जो आप के घर को इस तरह बनाये की उसमी आयु लम्बी हो, प्लम्बर-जो पाइप को ऐसे फिट करे की लीकेज(रिसाव) न हो, मोटर मेकेनिक-जो गाड़ी को ऐसे बनाये की गाड़ी सही तरह से चले, बढ़ई-जो आपके अनुसार सामान को बनाये और उसकी मरम्मत कर सके, स्वीपर-जो सही से सफाई कर सके नहीं मिलता, सही से खाना बनाने वाला/वाली और घर पर काम करने वाले नहीं मिलते- आप को इन्हें ढूँढना पड़ता है.
जहाँ इंडिया की आर्थिक हालत में वृद्धि हो रही है और एम्प्लॉयमेंट के स्कोप बढ़ रहे हैं वहीं जरूरी कुशलता ना होने के चलते काफी लोग बेरोजगार भी हो रहे हैं. इंडिया के निर्माण उद्योग में 2005 की रिपोर्ट के अनुसार 31.5 मिलियन कामगार हैं परन्तु उसमें से 83% अकुशल हैं 
कुशलता से कार्य पर प्रभाव:
आपने एक धावक को देखा होगा जो सरपट दौड़ सकता है पर आप तमाम कोशिश करने के बाद भी उस दौड़ की लय को नहीं पा पाते या आपने गोल्फ खेलने वाले को स्टिक से बॉल को दूर पहुचाते हुए देखा होगा और आश्चर्य प्रकट किया होगा. धावक ट्रेनिंग के दौरान पंजे की मूमेंट, साँस लेने का सही तरीका, दौर शुरू होते समय पंजे द्वारा स्टार्ट लेने की कला, दौड़ की शुरुआत, मध्य और अंतिम स्थिति की रणनीति के बारे में सीखता है और इन्ही वजह से वह सामान्य से बेहतर होता है. गोल्फ खेलने वालों को ट्रेनिंग के दौरान शोल्डर(बाहू), दिल की धड़कन, स्टिक को पकड़ने के लिए कलाई की मूवमेंट, दोनों पैरों,पेट,सिने एवं सर  की स्थिति, स्टिक को कितना पीछे ले जा कर बॉल को किस एंगल(कोण) से मारा जाय का कौशल सिखता है. यही ट्रेनिंग उसे कुशलता प्रदान करती हैं और उसे परफेक्ट बनाती है.

एक भोझ उठाने वाला 1-2 कुंटल अनाज का बोरा आसानी से उठा कर गाडियों में लोड कर देता है, पर यह काम बिना ट्रेनिंग के कितना जोखिम भरा है- पहले तो यह नौसिखिये से उठेगा नहीं और यदि उठ गया तो भार के कारण थोड़े ही दूरी पर ले जाकर गिरा देगा या लोड नहीं कर पायेगा, अगर बोझ  के साथ वह भी गिर गया तो उसकी मांसपेशियों में खिंचाव आने से उसे अस्पताल जाना पड़ सकता है. यही हाल कमोबेश नारियल या ताड़ी तोड़ने मे है- यदि कहीं गलती हुई तो आप नीचे गिरेंगे और आपकी हड्डी टूट सकती है,आप बुरी तरह घायल हो सकते हो या आपकी मुत्यु तक हो सकती है.
परंपरागत काम को कुशलता पूर्वक सीख कर उत्पादकता बढ़ाने के साथ अपनी आमदनी में भी इजाफा किया जा सकता  हैं. जिससे व्यक्तियों में रोजगार (मजदूरी/स्वरोजगार) के अनुकूल करने की क्षमता बढ़ेगी और यह बदलती प्रौद्योगिकी और श्रम बाजार की मांग के लिए, उत्पादकता में सुधार और लोगों के जीवन स्तर में वृद्धि के लिए, देश की प्रतिस्पर्धात्मकता को मजबूत बनाने के लिए एवं कौशल विकास में निवेश को आकर्षित करने के लिए आवश्यक है.
कहाँ है जरूरत:
भारत के श्रम मंत्रालय ने  अपनी 2008 की रिपोर्ट में असंगठित श्रम  कामगारों को चार समूहों में बांटा था और  यह वर्गीकरण व्यवसाय,  रोजगार की प्रकृति,  तंगहाल और सेवा श्रेणियों के आधार किये गए थे. (1)असंगठित व्यावसायिक समूह में छोटे और सीमांत किसान, भूमिहीन कृषि मजदूर, बंटाईदार, मछुआरे, पशुपालन, बीड़ी लपेटना, लेबलिंग और पैकिंग, भवन निर्माण और पुनः निर्माण श्रमिक, चमड़ा मजदूर, बुनकर, कारीगरों, नमक श्रमिक, ईंट भट्ठा श्रमिक, तेल मिलों, पत्थर खदानों, मिल मजदूरों आदि लोंगों को शामिल किया है; (2) रोजगार की प्रकृति के आधार पर खेतिहर मजदूर, बंधुआ मजदूर, प्रवासी मजदूर, अनुबंध और आकस्मिक मजदूर शामिल किये गए है; (3 )तंगहाल असंगठित क्षेत्र में ताड़ी बनाने वाले, मैला ढोने वाले,  सिर भार वाहक, चरवाहे, वाहन चालक, भार उठाकर रखने वाले शामिल हैं;  (4) सेवा क्षेत्र में दाइयों, घरेलू कामगारों, नाइयों, सब्जी और फल विक्रेताओं, अखबार विक्रेताओं, फुटपाथ विक्रेताओं, हाथ गाड़ी ऑपरेटरों, और असंगठित खुदरा दुकान संचालक शामिल हैं -इन सभी क्षेत्र के लोगों को कौशल प्रशिक्षण की आवश्यकता है.
उपरोक्त कार्य के लिए सामान्यता कोई ट्रेनिंग लेने का प्रचलन नहीं है. लोग काम को देख कर सीखते हैं और वे अंत तक नहीं जान पाते की उनके कार्य करने का तरीका सही है या नहीं. क्या वह किसी ट्रेनिंग से अपने कार्य करने की दर को बढ़ा सकते हैं या नहीं?   
सामान्यतः इसी कारण लगभग 30 करोड़ प्रवासी श्रमिक, जो कृषि से ज्यादा संबंधित हैं को रोजगार की तलाश में  दर-दर भटकना पड़ता है और उनकी महिलायें परम्परागत खेती करतीं रहती हैं और कृषि की समझ न होने के कारण कितने बार उनकी खेती खराब हो जाती है. किसानों को पता नहीं होता की सही से कैसे फावड़ा चलाना है, क्यारियां कैसे बनानी है, मिट्टी कैसी होनी चाहिए, बीज बोने की उचित रीति क्या है, खेत कैसे तैयार करना हैं, उसमें किस वक्त कौन सा यन्त्र, खाद, छिड़काव आदि करना हैं. 


कैसे होगा यह:
इसके लिए ऐसे सुरक्षित मॉडल बनाने होंगे की कामगारों के काम के अनुसार उन्हें ट्रेनिंग दी जा सके. जिससे उनके काम में भी रूकावट भी न आये और वे कौसल प्रशिक्षण भी ले सके. यह प्रशिक्षण ‘कार्य के स्थान पर’ और ‘कार्य से अन्य स्थान पर’ देना होगा.
·         इसके लिए कृषि अनुसंधानों, कृषि विज्ञान केन्द्र, बीज निगम जैसे निकायों  और कृषि से जुड़ी उत्पाद कंपनियों को को गाँव-गाँव के  दूर -दराज के इलाको में भी जाना होगा.
·         संबंधित क्षेत्र के कुशल कामगार की मदद भी ली जा सकती है.
·         राष्ट्रीय कौसल विकास निगम निकाय, एमएसएमई, कुटीर उद्योग, लघु केन्द्रों, राष्ट्रीय एवं राज्यीय प्रशिक्षण केन्द्रों, टेक्निकल शिक्षण संस्थानों को भी और व्यापक रूप से इसमें सम्मलित  होना होगा.
·         राष्ट्रीय संघो को भी अपने वेलेंटियर को प्रशिक्षित कर गाँव या दूर-दराज के इलाको में भेजकर लोगों को कुशल बनाने का काम करना चाहिए. इसके अतिरिक्त रिटार्ड कुशल कर्मी को भी लोगों को पप्रशिक्षित करना चाहिए.
·         एनजीओ, सेल्फ हेल्फ ग्रुप (SHG), पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप, से भी प्रशिक्षण शुरू करना होगा.  
·         मनरेगा जैसी एक कौशल योजना चलाई जाय जिसमें वर्ष में निश्चित दिनों की ट्रेनिंग देने की गारंटी दी जाय.




 


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