Friday 26 December 2014

सुशासन संकल्प बजाय विकल्प

माननीय भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी के 90वां जन्मलदिन 25 दिसम्बर को गुड गवर्नेंस डे या सुशासन दिवस के रूप में मनाया जा रहा है. जिसमें जनता की सहभागिता के साथ सुशासन की बात कही जा रही है. वाजपेयी जी ने सुशासन के लिए प्रधानमंत्री के तौर पर ढेरों कदम उठाएं जैसे -मसलन, सूचना की स्वतंत्रता, संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना, सर्वशिक्षा अभियान और अन्त्योदय अन्न योजना. इसके अलावा प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और स्वर्णिम चतुर्भुज  जैसी योजनाओं से भी देश की तस्वीर में जबरदस्त सुधार दिखा. बाजपेयी जी के विरोधी भी उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा ही करते हैं. निश्चित रूप से अटल जी वर्तमान युग के अजातशत्रु हैं और उन्होंने भारत की आराधना की है शायद इसलिए वे कह सके ‘’मेरी आस्थाभारत’’-

बाधाएं आती हैं आएं, घिरे प्रलय की घोर घटाएं
पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वाएलाएं
निज हाथों में हंसते-हंसते, आग लगाकर जलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा
मेरे हिसाब से सुशासन (Good governance) का मतलब किसी सामाजिक-राजनैतिक ईकाई (जैसे नगर निगम, राज्य सरकार आदि) को इस प्रकार चलाना है ताकि उसका लाभ आखिरी आदमी तक पहुच सके. सुशासन के अन्तर्गत बहुत सी चीजें आतीं हैं जैसे अच्छा बजट, सही प्रबन्धन, कानून का शासन, पारदर्शिता, सदाचार, स्वच्छता, लोगों की भागीदारी आदि.
मुझे याद आता है की सुशासन पर अटल जी ने ही कहा था कि देश को अच्छे शासन की जरूरत है. शासन अपने प्राथमिक कर्तव्यों का पालन करे, हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के सुरक्षा दे, उसके लिए शिक्षा, उपचार और आवास का प्रबंध करे इसकी बड़ी आवश्यकता है. इसी भावना को उन्होंने अपनी कविता में उतारा था-
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
 
उनका नीचा बने रहना ही उनको सामान्य आदमी से ऊँचा उठा देता है और उनमें इतनी शक्ति भर देता है की वो विश्व में चहुओर विरोध के बाद भी परमाणु प्रयोग को भारत में सफल बना सकें. इसके आलावा उन्होंने भारत-पाक के बीच दशकों पुराने अविश्वास और कटुता को ख़त्म करने के लिए लाहौर बस यात्रा की जो शुरुवात की वह प्रयास तो नोबेल पुरस्कार वाला कदम था. यह उनका स्वाभाव ही था की कारगिल युद्ध के बाद भारत-पाकिस्तान मैत्री की तरफ बढ़ सके- 
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना

यदि हम कुछ पीछे चले तो पाएंगे की भारत में अंग्रेजों की सत्ता 1760 में स्थापित हुई थी. तब से लेकर 1947 तक अंग्रेजों ने लगभग 34735 कानून बनाये थे. इसमें बहुत से कानून और व्यवस्थाएं सिर्फ हमें गुलाम बनाये रखने के लिए थीं पर यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि उन कानूनों में ज्यादा फेर-बदल नहीं किया गया और अधिकांश कानून और व्यवस्थाएं आज के समय में भी वैसी-की वैसी ही चल रहीं हैं जैसे अंग्रेजों के समय चला करती थीं. उस समय हमारे देश के सभी क्रान्तिकारियों सोचते थे कि भारत की गरीबी, भुखमरी और बेकारी तभी ख़त्म होगी जब अंग्रेज यहाँ से जायेंगे और हम अपनी व्यवस्था लायेंगे. उनका संकल्प था कि उन सब तंत्रों को उखाड़ फेकेंगे जिससे गरीबी, बेकारी, भुखमरी पैदा हो रही है. लेकिन हुआ क्या? हमने सिर्फ चेहरे बदले,पार्टी बदली पर व्यवस्था वही चलती रही. महात्मा ने गाँधी हिन्द स्वराज में जिक्र किया है कि बड़े सवालों की चर्चा जब संसद में चलती है, तब उसके सदस्य पैर फैला कर लेटते हैं या बैठे-बैठे झपकियां लेते हैं. उस संसद में इसके सदस्य इतने जोर से चिल्लाते हैं कि सुनने वाले हैरान परेशान हो जाते हैं."-कमोबेश यही स्थिति आज भी आये दिन देखने को मिलती है. बल्कि अब तो दूसरे सांसद पर मिर्च पाउडर फेकना, स्पीकर के ऊपर कागज़ फेकना, कुर्सी-मेज तोड़ना, चाकू निकाल लेना, सदन से उठकर चले जाना आम बात हो गयी है.

हालांकि इस कलयुगी माहौल में सुशासन दिवस से किसी रामराज्य की कल्पना करना तो बेमानी होगा, लेकिन योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन होगा ऐसी उम्मीद तो की ही जा सकती है. इसी के ना होने से भारत और इंडिया के बीच का बड़ा फर्क कायम है तथा आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी गुजारने को मजबूर है. हंसी तो तब आती है जब रोज हजारों-लाखों खर्च करने वाले नीति निर्माता पांच रुपये से लेकर 22 रुपये में दिन बिताने के कुतर्क देते हैं. एक तरफ हर दो घंटे में कर्ज के बोझ से दबा तीन किसान आत्महत्या करते हैं, जबकि दूसरी तरफ लाखों-करोड़ों के घोटाले को हमारे माननीय सामान्य घटना करार देते हैं.
 
इसमें कोई शक नहीं कि सुशासन किसी भी देश की प्रगति की कुंजी है और इसे हासिल करने के लिए ही सरकार ने सरकारी कर्मचारियों का कार्यालयों में समय से पहुंचना, फाइलों को जल्द से जल्द निपटाना, ई-टेंडरिंग, स्व-सत्यापन, औचित्यहीन कानूनों को खत्म करना या लोगों के सुझाव जानने के लिए वेबसाइट की लांचिंग, मंत्रालयों को शिकायत निपटान का निर्देश, मंत्रालयों के बीच ई-मॉड्यूल बनाना, डिजिटल इंडिया को बढावा देकर सारी सरकारी-सेवाओं की जवाबदेही को बढ़ाना जैसे ढेरों कदम बढ़ाये हैं जिससे प्रशासन चुस्त हुआ है और केंद्र सरकार पर आमजनों का भरोसा बढ़ा है. आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर करना, ई-रिक्शा के लिए अध्यादेश लाना, प्रधानमंत्री जन धन योजना और सब्सिडी खाते में आना ने लोगों में सुशासन की आशा जगाई है. भारत के प्रधान सेवक के रूप में प्रधानमंत्री ने भारतीय प्रधानमंत्री पद की गरिमा को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाया है तथा सामाजिक परिवर्तन के लिए करोड़ों भारतवासियों से संवाद के जरिये स्वच्छता या नशा मुक्ति जैसे संवाद किया है जो महत्पूर्ण हैं. वह  माता-पिता से लड़कियों के बजाय लड़कों को टोकने की आदत डालने को कहता है और अपने सांसदों की मर्यादा में बने रहने और उनकी गलती पर क्षमा मांगने में भी नहीं झिझकता है. जिसके आने से संसदीय कामकाज एवं कार्य-संस्कृति में बदलाव आया है. ऐसे प्रधानमंत्री द्वारा सुशासन की बात तर्कसंगत ही है.  

सवाल यह भी है कि सुशासन लाने के लिए जिम्मेदार क्या सिर्फ हमारे राजनेता या विधायिका ही है या इसके लिए हमारी कार्यपालिका और हम कहीं ज्यादा जवाबदेह हैं? हाल ही में उत्तर प्रदेश की आइएएस अधिकारी बी. चंद्रकला का अनियमितताएं पाने पर संबंधित अफसरों को फटकार लगाने का वीडियो सोशल मीडिया पर रिकार्ड वायरल हुआ. दरअसल, देश को बी. चंद्रकला और अशोक खेमका जैसे ढेरों काबिल और ईमानदार अफसरों की सख्त जरूरत है और आम आदमी को भी अपनी भूमिका के बारे में सोचना होगा. तभी हर आम आदमी रोजमर्रा की जिंदगी में सुशासन महसूस कर सकेगा. वैसे वाजपेयी के मुताबिक राजनीति में बढ़ता धनबल, विचारधाराओं का लोप होना और भ्रष्टाचार भी सुशासन के सामने बड़ी बाधाएं हैं.

जाहिर है सुशासन लाने के संदर्भ में समाज के प्रत्येक वर्ग को अपनी भूमिका के साथ न्याय करना होगा. केवल तभी सुशासन का सपना पूरा हो सकेगा, जो देश के बड़े उद्योगपति से लेकर आम आदमी तक हर खास और आम के लिए अत्यंत जरूरी है.
 

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