Tuesday 23 December 2014

हींग लगे ना फिटकरी फिर भी रंग चोखा होय


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अधिक उत्पादन पाने के लिए किसानों ने अन्धाधुन्ध रासायनिक उर्वरक, हानिकारक कीटनाशक, हाइब्रिड  बीज और  अधिकाधिक भूजल उपयोग किया जिससे भूमि की उर्वरक शक्ति, उत्पादन भूजल स्तर और मानव स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट आयी है. किसान भी खेती पर लगातार बढ़ते जाने वाले खर्च एवं कम लाभ पाने की स्थिति से तंग आकर खेती छोड़ने के लिए मजबूर हो गए. कईयों ने स्थिति से तंग आकर आत्महत्या तक कर ली. जैविक खेती (बर्मी कम्पोस्ट, कम्पोस्ट बायोडायनामिक) भी जटिल होने के कारण अन्ततः किसान को बाजार पर ही निर्भर बना रही है. अतः आवश्यकता ऐसी कृषि पद्धति की है जो खर्चीली ना हो परन्तु  उत्पादन,  खेत के उपजाऊपन पर कोई प्रभाव न पड़े साथ ही मानव स्वास्थ्य भी अच्छा बना रहे. ऐसी ही कृषि पद्धति है ‘जीरो बजट प्राकृतिक खेती’ जिसमें 1 देशी गाय से 10-30 एकड़ खेती सम्भव है.
जीरो बजट कैसे
मुख्य फसल का लागत मूल्य साथ में उत्पादित सह फसलों के विक्रय से निकाल लेना और मुख्य फसल को बोनस (शून्य लागत) के रुप में लेना.खेती के लिये सभी संसाधन (बीज, खाद, कीटनाशक आदि) निर्माण अपने घर या खेत में करके उत्पादन लागत जीरो मूल्य पर करना. 
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जीरो लागत खेती का आधार
 प्रकृति में सभी जीव एवं वनस्पति इकाईयों के भोजन की एक स्वालम्बी व्यवस्था है जिसमें मानव की भूमिका नहीं है जिसका प्रमाण है बिना किसी मानवीय सहायता के जंगलों में खड़े हरे भरे पेड़ व उनके साथ रहने वाले लाखों जीव जन्तु इस प्राकृतिक व्यवस्था को समझना व उसके अनुरुप खेती करना.
क्या है प्राकृतिक व्यवस्था
पौधों के पोषण के लिये आवश्यक सभी 16 तत्व प्रकृति में उपलब्ध हैं  उन्हें पौधे के भोजन रुप में बदलने का कार्य मिट्टी में पाये जाने वाले करोड़ो सूक्ष्म जीवाणु करते हैं. यदि यह सूक्ष्म जीवाणु पर्याप्त संख्या में मिट्टी में उपलब्ध रहें तो अन्य किसी तत्व की जरुरत नहीं होगी. इस पद्धति में पौधों पर जोर ना देकर सूक्ष्म जीवाणु की उपलब्धता पर जोर दिया जाता है. प्रकृति में इस सूक्ष्म जीवाणु की भी उपलब्धता एक विशिष्ट व्यवस्था है.
पौधों अपना पोषण प्रकृति की चक्रीय व्यवस्था से प्राप्त कर लेते हैं. पौधा पोषण के लिये आवश्यक तत्व मिट्टी से लेता है. फसल पकने के बाद काष्ठ प्रदार्थ (कूड़ करकट) के रुप में मिट्टी में मिलकर, अपघटित होकर मिट्टी में मिल जाते है और उसकी उर्वरा शक्ति को बढ़ा देते हैं.

देशी गाय का महत्व
एक ग्राम देशी गाय के गोबर में 300-500 करोड़ सूक्ष्म जीवाणु पाये जाते हैं. गाय के गोबर में गुड़ एवं अन्य प्रदार्थ डालकर किण्वन से सूक्ष्म जीवाणु बढ़ाने की क्रिया तेज कराके तैयार जीवामृत/घनजीवामृत जब खेत में पड़ता है तो करोड़ो सूक्ष्म जीवाणु भूमि में पौधो का भोजन निर्माण करते हैं एवं किसी बाहरी पदार्थ की आवश्यकता नहीं पड़ती.
देशी केचुओं का महत्व
केचुआ मिट्टी बालू पत्थर (कच्चा व चूना) खाता हुआ धरती के नीचे 15 फुट गहराई तक भूमि के नीचे चला जाता है. जिससे धरती के नीचे के पोषक तत्वों ऊपर आ जाते हैं. केंचुए पौधों की जड़ के पास धरती के ऊपर अपनी विष्टा छोड़ता है जिसमें फसल के लिये सभी आवश्यक तत्वों का भण्डार होता है. केंचुआ जिस छेद से नीचे जाता है कभी उससे ऊपर नहीं आता है. वह भूमि में दिन रात करोड़ो छिद्र कर भूमि की जुताई करता रहता है. जिससे भूमि मुलायम बनती है एवं जब बारिश होती है तो इन्हीं छिद्रों से पूरा वर्षा जल भूमि में संग्रहित होता है. इन्ही छिद्रों से पोधों तक हवा का प्रवाह भी बना रहता है.
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जीरो लागत प्राकृतिक कृषि के चरण
बीजामृत (बीज शोधन) : 5 किलो देशी गाय का गोबर, 5 ली0 गोमूत्र, 50 ग्राम चूना, एक मुट्ठी खेत की मिट्टी 20 ली0 पानी में मिलाकर 24 घंटे रखे. दिन में दो बार लकड़ी से घोले. तैयार बीजामृत को 100 किलो बीजों पर उपचार करें. छांव में सुखाये एवं बोयें.
जीवामृत : जीवामृत सूक्ष्म जीवाणु का महासागर है जो पेड़ पौधों के लिए कच्चे पोषक तत्वों को पकाकर पौधों के लिये भोजन तैयार करते हैं. गौमूत्र 5-10 लीटर, गोबर 10 किलो, गुड़ 1-2 किलो, दलहन आटा 1-2 किलो, एक मुट्ठी जीवाणुयुक्त मिट्टी (100 ग्राम), पानी 200 लीटर, इन सभी सामग्री को एक साथ मिलाकर, ड्रम में जूट की बोरी से ढककर छाया में रखें। सुबह व शाम डंडे से घड़ी की सुई की दिशा में घोलें. 48 घंटे बाद छानकर इसका इस्तेमाल नीचे दी गयी विधिनुसार सात दिन के अन्दर करें.
सिंचाई पानी के साथ : 1 एकड़ में 200 लीटर जीवामृत सिंचाई करते समय पानी के साथ टपक विधि से या धीमे-धीमे बहा दें.
छिड़काव द्वारा : पहला छिड़काव बुवाई के 1 माह बाद 1 एकड़ में 100 लीटर पानी 5 लीटर जीवामृत मिलाकर करें. दूसरा छिड़काव 21 दिन बाद 1 एकड़ में 150 लीटर पानी व 10 लीटर जीवामृत मिलाकर करें. तीसरा व चौथा छिड़काव 21-21 दिन बाद 1 एकड़ में 200 लीटर पानी व 20 लीटर जीवामृत मिलाकर करें. आखिरी छिड़काव दाने की दूध की अवस्था में प्रति एकड़ में 200 लीटर पानी, 5-10 लीटर खट्टी छाछ (मट्ठा) मिलाकर छिड़काव करें.
घन जीवनामृत : घन जीवनामृत जीवाणुयुक्त सुखा खाद है जिसे बुवाई के समय या पानी के तीन दिन बाद भी दे सकते हैं. गोबर 100 किलो, गुड़ 1 किलो, आटा दलहन 1 किलो, मिट्टी जीवाणुयुक्त 100 ग्राम उपर्युक्त सामग्री में इतना गौमूत्र (लगभग 5 ली0) मिलायें जिससे हलवा/पेस्ट जैसा बन जाये, इसे 48 घंटे छाया में बोरी से ढककर रखें. इसके बाद छाया में ही फैलाकर सुखा लें, बारीक करके बोरी में भरे. इसका 6 माह तक प्रयोग कर सकते हैं. 1 एकड़ में 1 कुन्तल तैयार घन जीवामृत देना चाहिए.
अच्छादन : देशी केंचुओं एवं सूक्ष्म जीवाणुओं के कार्य करने के लिये आवश्यक ‘‘सूक्ष्म पर्यावरण’’ उपलब्ध कराने हेतु एवं भूमि की नमी को सुरक्षित करने हेतु भूमि को ढंकना (आच्छादन) पड़ता है. सूक्ष्म पर्यावरण का आशय है पौधों के बीच हवा का तापमान 25-32 डिग्री, नमी 65-72 प्रतिशत व भूमि सतह पर अंधेरा. जब हम भूमि का काष्ठ प्रदार्थो से या अन्य प्रकार से आच्छादन करते है तो सूक्ष्म पर्यावरण का निर्माण होता है जिसमें देशी केंचुओं व सूक्ष्म जीवाणु को उपयुक्त वातावरण मिलता है एवं भूमि की नमी का वाष्पन नहीं हो पाता. बाद में काष्ठाच्छादन भूमि में अपघठित होकर उर्वरा शक्ति का निर्माण करता है.
    सह फसलों द्वारा भी भूमि को सजीव आच्छादन के द्वारा ढका जा सकता है.
बेड व नाली व्यवस्था द्वारा जल की बचत : पौधों की जड़े पानी को सीधे नहीं लेती बल्कि मिट्टी कणों के बीच 50 प्रतिशत हवा व 50 प्रतिशत वाष्प के मिश्रण (वाफसा) को लेती हैं. अतः सतह से ऊचे तैयार बेड पर फसलो को नालीयों द्वारा पौधों की आवश्यक सिंचाई वाफसा के रुप में उपलब्ध कराने से पानी की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है. नालीयों को भी आच्छादन से ढक दिया जाता है.
बहुफसली पद्धति : उचित मिश्रित फसलों को लेने पर फसलों की जड़े अलग-अलग स्तर से उचित खुराक ले लेती हैं एवं सहअस्तित्व के आधार पर रोगों एवं कीटों से बचाव तथा नाइट्रोजन का बटवारा कर लेती है। उचित फसल चक्र अपनाने से भूमि को नाइट्रोजन स्वतः ही प्राप्त हो जायेगा। ऊपर से यूरिया देने की आवश्यकता नहीं होगी।
फसल सुरक्षा: इस पद्धति में कीट नियंत्रको की आवश्यकता ही नहीं पड़ती क्योंकि कीट आते ही नहीं फिर भी आवश्यकता पड़ने पर गोबर गौमूत्र, छाछ एवं वनस्पतियों द्वारा तैयार नीमास्त्र, ब्रहमास्त्र, अग्नियास्त्र, फफूदनाशक, दशपर्णी अर्क आदि बनायी जाती है.
ध्यान देने योग्य बातें:
प्राकृतिक कृषि में देशी बीज ही प्रयोग करें.
प्राकृतिक कृषि में किसी भी भारतीय नस्ल का देशी गोवंश ही प्रयोग करें. जर्सी या होलस्टीन का प्रयोग हानिकारक है.
जीवाणुयुक्त मिट्टी हेतु बट वृक्ष पीपल के नीचे या मेंढ़ की मिट्टी लें.
पेड़ पौधों व फसल की पंक्ति की दिशा उत्तर दक्षिण होगी.
दलहन फसलों की सह फसली खेती करना अच्छा रहता है.
किसान भाइयों भारतवर्ष में खेतीक्षेत्र कम पानी, असामयिक बरसात और सूखे वाला क्षेत्र है इसमें रासायनिक खेती और महंगी होती जाएगी तथा पैदावार (उत्पादन) घटता जाएगा इसमें पूरी फसल समाप्त होने के खतरे ज्यादा है. रासायनिक खेती में रोग स्वयं लगते हैं इसे जीरों बजट/प्राकृतिक खेती से बचाया जा सकता है.


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