Thursday 26 February 2015

बुक फेयर, किताबें और मैं...

कहते हैं कि ज़िन्दगी एक मेला है; और किताबें उस मेले को समझने का हथियार. तो पुस्तक मेला क्या है? एक मेले को समझने की कोशिश में जुटा एक और मेला?
निजी सच यह है कि मुझे बुक फेयर से तनाव होता है. न जाऊँ तो अपराध बोध होता है, और जाऊँ तो रिक्तता बोध. अपराध भाव से बचने के लिये हर बार जाता हूँ; और हमेशा भरे बैगों और ख़ाली मन के साथ लौटता हूँ. ज्ञान के अथाह सागर में बूंद के बराबर भी न हो पाने का अहसास यहाँ आकर और गहरा हो उठता है....
पहले ही (न पढ़ी गई) किताबों से अटी पड़ी बुक शेल्फ़ों में इधर-उधर जगह बनाकर नई किताबें ठूँसता हूँ. अकेलेपन से उकताए मार्क्स की बग़ल में अंबेडकर और गांधी को बैठाता हूँ और एक कोने में हताशा से सिमटे ग़ालिब की बग़ल में फ़ैज़ और साहिर को.
पुरानी किताबें उलाहना देती हैं कि आज तक हमें ही नहीं छुआ तो इन्हें क्यों लाए? उन्हें कैसे समझाऊँ कि नहीं पढ़े जाने पर भी उनकी मौजूदगी कितना सुकून देती है. दूसरी तरफ़, अपने अंजाम से बेख़बर नई किताबें अभी-अभी डोली से उतरी दुल्हन की तरह चमक और दर्प से भरी दिखती हैं. शायद उन्हें परित्यक्त हो जाने के खतरों और दर्द का अहसास नहीं..
हर क़िताब से गुज़रते हुए अपनी जाहिली का अहसास गहरा हो जाता है. बार-बार यह भाव उभरता है कि अरे, यह भी नहीं पता था ! फ़िर ये सोचकर कि दुनिया में ऐसी लाखों किताबें और हैं जिन्हें अभी तक देखा भी नहीं है, तनाव बढ़ने लगता है. गनीमत है कि तनाव के इसी क्षण में सुकरात याद दिला जाते हैं कि सारे ज्ञान का निचोड़ अपनी अज्ञानता को समझ लेना ही है. और डेविड ह्यूम भी प्यारी सी चपत लगाकर याद करा देते हैं कि सबसे बड़े ज्ञानी और सबसे बड़े अज्ञानी लगभग बराबर ही जानते हैं. अंतर ज्ञान का नहीं, घमंड का है..
और आख़िर में वही स्थायी भाव रह-रहकर उभरता है- क्या एक ज़िंदगी किताबों से मुहब्बत निभाने के लिये बहुत कम नहीं है? जब तक ज़िंदगी का फ़लसफ़ा समझ में आता है, क्यों वह हाथ से निकल चुकी होती है? क्या एक समय के बाद कबीर की तरह पोथियों का बोझ अपनी पीठ से उतारकर सारी ताक़त अपने 'ढाई आखर' की खोज में लगा देनी चाहिये? आख़िर 'कागद की लेखी' 'आँखिन देखी' का विकल्प कैसे हो सकती है...
और इसी उधेड़बुन से मुक्ति की तलाश में कोई सहारा खोजते हुए फ़िर बुक शेल्फ़ की शरण में आ जाता हूँ....

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