Monday 30 March 2015

प्रधानमंत्रीजी कैसे बदलें गाँव की तस्वीर?

Think About India



यह बड़ी खुशी की बात है कि भारत के नए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हमारे गाँव को स्वावलंबी बनाना चाहते हैं और गाँव की चिंताओं से चिंतित हैं. उन्होंने गाँव की आत्मा को बचाए रखकर गाँव को शहर जैसी सुविधाओं से लैश करने का इरादा संसद में दिए अपने पहले भाषण में ही प्रकट कर दिया था. महात्मा गाँधी के सपनों को भी उद्धृत करते हुए कहा था कि गाँव के विकास से ही देश का विकास होगा. मगर कैसे? इसका खाका उन्होंने अभी तक प्रकट नहीं किया. अब जब देश में बेमौसमी बारिश से किसानों की फसलें ख़राब हो गई हैं और किसानों को लग रहा है की सरकार उनके लिए कुछ कर नहीं रही है ऐसे में मोदीजी ने किसानों से मन की बात की. पर मोदी जी का अधिकतर ध्यान भूमि अधिग्रहण बिल पर ही लगा रहा. जबकि किसान कुछ ठोस कदम की अपेक्षा कर रहे थे.


कहावतों में तो भारत देश किसानों का देश है और यहाँ की मिट्टी सोना, हीरे-मोती उगलती है मगर वास्तविकता बिलकुल इसके उलट है. किसान आज देश का सबसे शोषित, पीड़ित, प्रताड़ित, वंचित और पिछड़ा व्यक्ति है. कृषि मज़बूरी वश की जा रही है और किसान सहित सारे ग्रामीण सरकारी नौकरियों, छोटे-मोटे रोजगार-धंधों और शहरों के भरोसे जी रहे हैं. देश के किसानों का शोषण अभी तक रुका नहीं अब जमींदार नहीं है तो किसान की गाढ़ी कमाई गड़पने के लिए सरकारी व्यवस्था तो है. 

व्यवसायी और कारोबारी को देने के लिए कर्ज है जिसके कारण दिसंबर, 2014 तक सभी सरकारी बैंकों का संयुक्त तौर पर एनपीए 80,535 करोड़ रुपये हो चुका है. और व्यवसायी या कारोबारी अपने कर्ज को लेकर फिक्रमंद ही नहीं हैं. फिर भी बैंक वाले इन्हें परेसान नहीं करते और सरकार बीमार उद्योग के नाम पर सहायता देने को तैयार रहती है. यहाँ किसान इसलिए आत्महत्या कर लेता है क्योंकि उसकी एक सीजन की फसल ख़राब हो गयी और वह लोन के इन्सटॉलमेंट नहीं चूका सकता. जाहिर है की किसान का ज़मीर आज भी जिन्दा है जबकि कारोबारियों का कब का मर चूका होता है.  

हम सब जानते हैं की कोई भी व्यवसाय-कार्य लोगों द्वारा तभी किया जाता है जब उसमें लगे लोग उस कार्य-व्यवसाय से मुनाफा कमा सके और यदि मुनाफा न भी मिल सके तो कम-से-कम परिवार तो भूखा न मरे. पर किसानों के साथ सुखद स्थिति कभी नहीं बनी. दासता काल से आजतक उनके द्वारा उत्पादित अनाज, सब्जियाँ, फल और दूध आदि बगैर मुनाफा के बाजार तक पहुँचती है और हैरत की बात है कि बाज़ार में बैठे व्यापारी और बिचौलिए उन उत्पादों को बेचकर धन्ना सेठ बने बैठे हैं. फ़ूड प्रोसेसिंग का व्यापार चला कर करोड़ों अंदर किये जा रहे हैं. अगर किसान 5 एकड़ खेत का मालिक है तो वह यदि सबकुछ ठीक रहा तो सालभर में 30 हज़ार रुपए कमा पाता है. अब अंदाजा लगा लीजिए 5 एकड़ में खेती करनेवाला सालाना 30 हज़ार रुपए कमाकर अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे कर सकता है? और उन किसानों का क्या जिनके पास 2 एकड़ से भी कम की खेती हैं या उन कामगारों का क्या जिनके पास खेती भी नहीं है और वे मजूरी या बंटाई पर खेती कर रहें हैं? जो जाड़े के कंपा देने वाली ठण्ड और गर्मी की चिलचिलाती धूप को भी हराने में लगे हुए हैं. इसके विपरीत सरकारी नौकरी करनेवाला चपरासी भी कम से कम 15 हज़ार रुपए महीना वेतन पाता है. लिहाजा, आज़ादी के 6 दशक बाद भी किसान शोषित, पीड़ित, प्रताड़ित, वंचित और पिछड़ा तबका बना हुआ है, क्यों? तो  इस सवाल का जवाब आज तक या तो सरकारें ढूँढ नहीं पाईं या फिर इस सवाल को जानबूझकर नजरअंदाज़ किया गया है.


फुटपाथ पर बैठा मोची और खोमचे वाला भी अपनी मेहनत की कीमत खुद तय करता है, मगर बड़ा से बड़ा किसान भी अपने उत्पादन की कीमत तय नहीं कर पाता. उसे बाज़ार के रहमोकरम पर ही जीना पड़ता है. कहने को तो सरकार कृषि उत्पादनों का न्यूनतम समर्थन तय करती है, मगर वह बेहद कम, दोषपूर्ण और अन्यायी है. आजादी के समय यह लागत से 150% के करीब थी जो दिनोदिन घटती जा रही है. वैसे तो बाज़ार में किसी भी वस्तु की कीमत उस वस्तु की लागत में मुनाफा जोड़कर तय की जाती है, मगर किसानों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के साथ यह रीती नहीं चलती. किसानों को मुनाफा तो दूर, मेहनत की मजूरी तक अब नहीं मिल पा रही है. क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों को मुनाफा सहित मूल्य दिलाने का संकल्प रखते हैं? यदि हाँ,  तो किसानों को बाज़ार से अपनी मेहनत का सही मूल्य मिले,  इसकी उपयुक्त व्यवस्था करनी होगी.

कहने को तो कृषि यंत्रीकरण किया जा रहा है और सरकार सब्सिडी की रेवड़ीयां भी बाँट रही है पर यह किसे मिल रही है यह किसी से छुपा नहीं है. अत्यंत छोटे किसान, कृषि मजदूर और खेती से जुड़ी महिलाओं के पास वांछित कृषि पट्टा नहीं है और ये लाइन में ही खड़े होते हैं और लोगों की सब्सिडी भी पास हो जाती है. ग्रामीण बैंकों और कृषि अधिकारी के हजारों मामले से सरकार और जनता दोनों  वाकिफ हैं और डीलर बीच में मजे काट रहा है. डीजल सब्सिडी का लाभ सारा देश बिना किसी सीमा के उठा रहा है जबकि किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को सिमित कर दिया गया है. कृषि यंत्र निर्माता पहले अपने यंत्र को पास कराने के लिए हिसार और बुढ़नी के चक्कर लगाये और फिर सबकी जेब गर्म कर अपने यंत्र को पास कराये उसके बाद डीलर को भी सहूलियत दें. इस कुचक्र में पड़ कर उदहारण के लिए 70-75हजार रुपये का पॉवर टिलर 120000 या इससे अधिक रुपये का बिक रहा है. सरकार यदि सारे प्रोडक्ट को ऑनलाइन बिक्री को प्रोत्साहित करे और सब्सिडी को किसान के खाते में सीधे डाले तो वह एक के स्थान पर दो पॉवर टिलर को सब्सिडी दे पायेगा. इस तरफ भी सरकार को कदम बढ़ाने चाहिए. 


ज्यादातर गाँवों में सभ्य समाज के जीवन की मूलभूत सुविधाएँ- अच्छे स्कूल और अस्पताल तक नदारद हैं. मुझे याद है पिछले महीने मुझे सुल्तानपुर के पापर घाट जाना पड़ा. तब मुझे मालूम चला की गाँव की सड़क के क्या हाल है? आपको बता दूँ की यह ऐसी जगह है जिसे धार्मिक दृष्टी से भी मान्यता है और हर साल यहाँ दशहरे का मेला लगता है जिसमें लाखों की संख्या में इस घाट पर स्नान के लिए भीड़ लगती है फिर भी यह सड़क विगत पांच वर्ष से अधिक समय से ऐसी ही पड़ी है जिसपर पैदल चलना मुश्किल है. यहाँ पर शमशान घाट भी है. मेरी मोदी सरकार से दरखास्त है की कम से कम अंतिम सफ़र यहाँ आसान बन सके इस हेतु कदम उठाये जाए.   
 
मोदी जी अगर सचमुच गाँव और किसान को मजबूत और स्वावलंबी बनाना चाहते हैं, तो फूड प्रोसेसिंग के व्यवसाय में उद्योगपतियों के एकाधिकार को खत्म करना होगा. अगर मेगा फ़ूड पार्क की बात करें तो सबसे बड़ी जनसंख्या वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश में एक भी मेगा फ़ूड पार्क नहीं है. सिर्फ़ तीन फ़ूड पार्क संचालित हो रहे हैं और उसमें से दो सरकारी हैं और सरकारी फ़ूड पार्कों की कहानी तो हर किसान को पता है. बेहतर हो कि फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री में किसानों की सीधी भागेदारी अनिवार्य की जाय और उन्हें इस इंडस्ट्री का मेन स्टेक होल्डर बनाया जाय. किसान पुत्रों को इसमें सीधी भागीदारी ली जाये जिससे किसान के खेत से ही उसके उत्पाद उठा लिए जाय पर इसमें मध्यस्थ को जगह न मिले इसका ध्यान रखा जाय. सबसे अहम बात “मेक इन रूरल” को बढ़ावा मिले. 

अब सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वाकई गाँव को सँवारने को लेकर गंभीर है ? क्या वह गाँव में रहनेवाले लोगों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत को लेकर सचमुच चिंतित है? क्या वह गाँव और ग्रामीणों की दशा सुधारने और उनकों उनका वाजिब हक दिला पाने का संकल्प रखते हैं?  यदि हाँ, तभी गाँव का विकास संभव है, वरना दशकों से गाँव और किसान के विकास को लेकर चल रही सरकारी कवायद जिस तरह से अबतक रस्मी रही है, आगे भी रस्मी ही बनी रहेगी? भाषण देकर समर्थकों और मातहतों से तालियाँ जितनी भी पिटवा लें, हमारे गाँव की स्थिति सुधरने वाली नहीं.



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