Wednesday 15 April 2015

‘आप’ का बुलबुला कहीं फूट न जाए

Think About India
आम आदमी पार्टी के गठन और उसके पश्चात् प्रथम लोकसभा चुनाव के समय जो छवि लोगों के जेहन में थी वह अब धूमिल होने लगी है. पार्टी और उसके लोगों के प्रति लोगों को नजरिया बदलने लगा है. पार्टी की गतिविधियाँ किसी रंगमंच पर चल रहे मंचन सरीखा हो गया है. आप पार्टी के मंचन को देख कर उसके सपोर्टर पछता रहे हैं और अन्य पार्टी के समर्थक उनका मजाक भी बना रहे हैं. जो भी हो रहा है उसे न तो केजरीवाल सुखद कह सकते हैं और ना ही प्रशांत या योगेन्द्रजी ही. यह आग पार्टी के अन्दर पहली बार नहीं लगी है इसके पहले भी कई बार चिंगारियां लग चूकी हैं पर वह मुख्य चेहरे नहीं होने के कारण अहमियत में नहीं आ पाए और उनकी आवाज दब कर रह गयी. आखिर कमी तो कहीं है ही नहीं तो इतने सारी आवाजे नहीं उठ पाती. 
पार्टी के गठन और उसकी प्रचारात्मक गतिविधियों के कारण लोगों में आप के प्रति यह धारणा बनने लगी थी की यह प्रबुद्ध और देशहित चिंतित हैं. इसके कारण गरीबा-गुरबा और मध्यम वर्ग ने उनका प्रबल समर्थन किया. टेम्पों, ई-रिक्शा चालक, रिक्शा चालक, झुग्गी-झोपड़ी वालों को लगा की अब उनके हित को समझने और साधने वाली पार्टी का उदय हुआ है और इस पार्टी में शामिल लोग उनके बीच से हैं. अभिजात, कुलीन तंत्र तथा परंपरागत राजनीतिक दंभ वाले लोगों से यह पार्टी सर्वथा परे थी. लोगों को लगा था की स्वच्छ राजनीति का सूरज उगा है जिसकी रश्मियां सब पर बिखरेंगी और अब राजनितिक वंशवाद ख़त्म होगा और नए विचारवान, जोशीले, प्रबुद्ध और नेक सोच वालों की इंट्री होगी. इसके अतिरिक्त सस्ती बिजली, निःशुल्क पानी, वाईफाई, नारी सुरक्षा, वीआईपी कल्चर ख़त्म करने का पार्टी रुझान, झुग्गी-झोपड़ियों वालों को भरोसे में लेना, नो डार्क ज़ोन,भ्रष्टाचार मुक्त दिल्ली जैसे मुद्दों ने लोगों को फिर आकर्षित किया और लोग 49 दिन की केजरीवाल की गलती को भुला कर यह कहते हुए हुए भारी बहुमत दिया कि– ‘केंद्र में मोदी, दिल्ली में केजरीवाल.’
    
इसके पूर्व भी लोगों और युवाओं ने विकास और तमाम वादों से प्रभावित होकर भ्रष्टचार मुक्त राजनीति से के लिए सालों-साल से चली आ रही शीलाजी को पटकनी देकर आप को दिल्ली का ताज नवाजने का प्रयास किया था. लेकिन आप को सत्ता के लिए बैशाखी का सहारा लेना पड़ा. आप को बैशाखी नहीं भाई और उन्होंने लोकसभा चुनाव और जनता की मनोभावना को भुनाने का सही समय समझ कर लोकसभा में कूदने का निश्चय खुद कर दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगवा दिया. अब यह सोची-समझी चाल के तहत हुआ या सिर्फ राजनितिक महत्वकांक्षा को भुनाने की अवसरवादी नीति के तहत कहना मुश्किल है.  
इतिहास को गौर से देखे तो यह दीखता है की कोई भी पार्टी इतनी जल्दी नहीं विकसित हुई जैसे की आप. इसमें लोग इकट्ठा हुए और जनसमूह की पार्टी बन गयी. आप या आम आदमी कहलाने के लिए किसानों का, मजदूरों का, खेतिहर मजदूरों का, छोटे दुकानदारों का इसमें जुड़ना जरुरी था. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. इस पार्टी में बेनाम चेहरे अवश्य जुड़े पर निचले दर्जे के नहीं बल्कि राजनितिक महत्वाकांक्षा पाले बैठे लोगों के चेहरे. जो न पहले चर्चा का विषय थे न अब हैं. वह बच्चों की तरह केजरीवाल सरीखे पार्टी के नुमाइन्दों की उंगली पकड़ कर राजनीति कर रहे हैं. बाकि बचे वे लोग जो तार्किक बुद्धि बल के थे और चुनाव में विजित भी हुए थे की प्रज्ञा खुराफ़ात करे और हिटलरशाही प्रवृत्ति के लोगों पर ज्ञान बघारें उससे पहले ही उन्हें पार्टी से बाहर जाने वाला रास्ता दिखा दिया गया. कुछ सम्माननीय लोग जो सिर्फ पार्टी से पार्टी के नेक इरादों के कारण जुड़े थे, पार्टी के अंतःकलह से आहत हो कर अपनी गलती समझ खुद ही पार्टी से बाहर हो जाना ठीक समझा. अब तो ऐसा लगता है कि जिस गति से इस पार्टी का उदय हुआ था उसी गति से बिखराव होने लगा है. पर इन सबके बीच जो सबसे अच्छी चीज हुई वह यह की सालों-साल चली आ रही और लगभग लाइलाज हो चूकी खांसी CM बनते ही एक ही इलाज में चंद हप्तों में ठीक हो गयी.
  
पहली पारी में केजरीवाल ने मंझे हुए राजनेता की तरह किसी का समर्थन ना लेने और ना देने की अपने बच्चों की कसम तोड़कर साबित किया था कि वह राजनीति के दांव-पेंच जानते हैं. उन्होंने जल्दबाजी में लोकपाल बिल नहीं लाकर, सब्सिडी का पुराना नुस्खा अपनाकर, पानी के दाम घटाकर और समर्थन देने वाली कांग्रेस की दुखती रगों को न छूकर परिपक्वता दिखाई थी. उनके पास सब प्रमुख पार्टी नेताओं के खिलाफ़ सबूत थे. लेकिन स्टिंग आपरेशन का जो अस्त्र उन्होंने अजमाया था वह अब उन्हें ही खुद घायल कर रहा है.
किसी राजनीतिक पार्टी के लिए आवश्यक है कि उसकी स्पष्ट नीति, कार्यक्रम, न्यायसंगत कार्यशैली हो, सुगठित संगठन हो, देश की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक व्यवस्था पर स्पष्ट सोच हो, उसके सदस्यों में अनुशासन और विचारों में सामंजस्य हो. परन्तु विचारों की ऐसी परिपक्वता एक दिन में विकसित नहीं होती. अरविन्द केजरीवाल का बयान कि रिश्वत ले लो और स्टिंग आपरेशन करो, दफ्तरों के अधिकारियों का स्टिंग आपरेशन करो, यह सब खोजी पत्रकारिता के लिए किसी काम का हो सकता है, सरकार चलाने के लिए प्रभावी नहीं होगा.

आम आदमी पार्टी में विविध विचारों के विद्वान लोग तो हैं परन्तु सब तो नेता हैं, यहां फॉलोअर कोई नहीं. अधिकांश लोग अन्ना हजारे के सपनों को नहीं बल्कि अपने सपनों को साकार करने आए थे. पार्टी में दिशा और दृष्टी दोनों होनी चाहिए पर आप में दिशा तो है पर दृष्टी का आभाव है. जिसके चलते पार्टी ज्यादा दूर जाती नहीं दिखती. कहीं इसके हालत भी वीपी सिंह की पार्टी की तरह न हो.

जब किसी पार्टी का संयोजक बिजली के तार काटने जोडऩे में लगता है तो उसे बड़े मुद्दों पर सोचने का समय नहीं मिलता. कुशल नेतृत्व के अभाव में पार्टी के लोग परस्पर विरोधी और विवादास्पद बयान देते हैं, जैसे- रायशुमारी के बाद ही कश्मीर में सेना भेजना, न्यायधीशों की बैठक बुलाने की बात करना, और विश्वविद्यालय स्थानीय लोगों के लिए हों आदि किसी विकसित दल की निशानी नहीं हैं.
‘आप’ जिस प्रकार सैद्धान्तिक आधार पर आदर्श स्थापित करने की बातें कर रही थी और बिना हिसाब लगाए वादे कर रही थी, उसकी ढोल का पोल तो खुलना ही था एक दिन. भ्रष्टाचार और कालाधन जैसे बड़े-बड़े मुद्दों से शुरू हुआ आन्दोलन आज बिखराव के कगार पर खड़ा है. इतनी जल्दी बिखराव आरम्भ हो जाएगा, किसी ने नहीं सोचा होगा. आप ने अपनी करनी से अपने चहेतों कों चोट पहुचाई है जिससे उसका जनाधार लगातार गिर रहा है और कोई अपना लोगों तो कोई अपनी नीली कार तो कोई डिनर का पैसा वापस मांग रहा है. दिल्ली ललकार से पहले केजरीवाल को चाहिए था दिल्ली के विकास का बेहतर मॉडल बनाकर पेश करते और उस पर सबकी जिम्मेदारी तय करते. पर शतरंज के बाजीगर तो सिर्फ सह और मात का खेल खेलते हैं कही ऐसा न हो की कार्यकर्ताओं की अति महत्वाकांक्षा ने राजनीतिक का जो बुलबुला बनाया था वह फूट जाय.

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